बुधवार, 4 जनवरी 2023

*२८. काल कौ अंग ५/८*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ५/८*
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पाट पटंबर पहरते, करते भोग बिलास ।
जगजीवन तिन हूं किया, मरघट४ मांहीं बास ॥५॥
(४. मरघट=श्मशान)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो रेशम के वस्त्र पहनते थे और कितने ही प्रकार के भोग विलास करते थे उनका भी अंतिम वास श्मशान में होता है ।
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गंदा सड़्या५ सरीर की, आस करै मति कोइ ।
जगजीवन छिन एक मैं, जलि कोयला होइ ॥६॥
{५. सड़्या=सड़ा हुआ(दुर्गन्धयुक्त)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस गंदे सड़े देह से कोइ आशा मत करो । इसे अंत में जलकर कोयला होना है ।
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कांटो* भाग्यो कसकतो, सही न सकतो साल ।
(अब) जगजीवन जम्बुक भखै, देखौ तन का हाल* ॥७॥
(*-*. जीवित मनुष्य को, कोई कांटा चुभने पर भी, बहुत कष्ट अनुभव होता है; परन्तु उसी के मृत शरीर को शृगाल एवं कुत्ते कितनी निर्दयता से काट कर खा रहे हैं और वह कोई विरोध तक नहीं कर रहा... कितने आश्चर्य की बात है ॥७॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव को कांटे का भी दर्द सहन नहीं होता है वह भी पीड़ा दायक होता है । परन्तु उसी मृत शरीर को जब गीदड़ व कुत्ते नोच नोच कर खाते हैं तो वह विरोध भी नहीं करता कितने आश्चर्य की बात है ।
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जगजीवन मांटी१ पड़ी, मांहै सांस न बांस ।
काया तरवर ढह२ पड्या, पंछी भये उदास ॥८॥
(१. मांटी=मृत शरीर) (२. तरवर ढह पड्या=उत्तम वृक्ष गिर गया)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह मृत्यु के बाद जब मिट्टी हो जाती है तो उसमें ना खुशबू रहती है न श्वास । शरीर रुपी वृक्ष के ढहने से परिजन रुपी पक्षी उदास हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

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