मंगलवार, 3 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२७९

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२७९)*
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*२७९. त्रिताल*
*काहे रे बक मूल गँवावै, राम के नाम भलें सचु पावै ॥टेक॥*
*वाद विवाद न कीजे लोई, वाद विवाद न हरि रस होई ।*
*मैं मैं तेरी मांनै नाँहीं हीं, मैं तैं मेट मिलै हरि मांहीं ॥१॥*
*हार जीत सौं हरि रस जाई, समझि देख मेरे मन भाई !*
*मूल न छाड़ी दादू बौरे, जनि भूलै तूँ बकबे औरे ॥२॥*
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भा०दी०-हे मानव ! वाद-विवादाभ्यां श्वासप्रश्वासौ व्यर्थमेव गच्छतः सुखन्तु रामनाम-चिन्तनेनैव भवति । अतस्त्वं वादविवादौ त्यज । नहि वादे हरिरस उपलभ्यते । नहि तव ममेति भावेन हरिस्तुष्यति । भगवद्भक्ता तव ममेति भेदबुद्धि निरस्यैव भगवत्स्वरूपं प्राप्नुवन्ति । अतो हे विद्वान! त्वमपि स्वमनसि विचारय, जयपराजयभावेन शास्त्रार्थं कृत्वा केनाऽपि हरिरस: प्राप्त: किम्? प्रत्युत वादि-प्रतिवादिभ्यां प्रवर्तनीय वाग्व्यवहार उभयोर्मनसि कटुतैव जायते ।
तस्मात्तयोर्दूषितान्त:करणत्वेन हरि-प्रेमाऽपि नश्यति । हे विद्यागर्वोन्मत्त विद्वन् ! वादं मुञ्च, प्रभुं मा विस्मर । आत्मस्वरूपं परब्रह्मपरमात्मानं भज । पद्यमिदं सांभर नगरे वादविवादपटुतराय कस्मैचित् विदुषे प्रबोधायोक्तम् ।
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हे मानव ! वाद-विवाद में जीव के श्वास-प्रश्वास व्यर्थ ही जाते हैं । सुख तो राम-नाम के चिन्तन में ही है । अतः वादविवाद करना छोड़ दे । वादविवाद से हरि रस की प्राप्ति नहीं होती और तेरा-मेरा भाव करने से भगवान् भी प्रसन्न नहीं होते । भगवान् के भक्तों ने तेरी मेरी इस भेद-बुद्धि को त्याग कर के ही भगवान् के स्वरूप को प्राप्त किया है ।
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अतः हे पण्डित ! तुम भी अपने मन में विचार कर देखो कि जयपराजय की भावना से शास्त्रार्थ करके किसी ने भी क्या हरि-रस को प्राप्त किया है । प्रत्युत वादी-प्रतिवादी के द्वारा जो परस्पर में वाग्-व्यवहार होता है, उससे दोनों के मनों में जय-पराजय की भावना को लेकर कटुता पैदा हो जाती है । जिससे दोनों का अन्तःकरण दूषित हो जाता है । जिसके कारण हरि-रस भी नष्ट हो जाता है ।
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हे विद्या के अभिमानी पंडित ! वादविवाद को छोड़ दो, प्रभु को मत भूलो, परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करो । इस पद्य के द्वारा सांभर में एक शास्त्रार्थ में कुशल पंडित को उपदेश दिया था ।
(क्रमशः)

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