सोमवार, 9 जनवरी 2023

*२८. काल कौ अंग १३/१६*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग १३/१६*
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कोटिक सीसा कांगुरा११, कटक जुड्या लख कोडि ।
जगजीवन इक रांम बिन, अंत मुवा सिर फोडि ॥१३॥
(११. कांगुरा=काच जड़े कंगूरों वाले महल)
करोड़ों प्रकार के शीशे, व स्वर्ण निर्मित वाले महलों में भी जीव प्रभु के बिना पछताते हुये ही मृत्यु को प्राप्त होता है ।
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सोड़१२ सपेदी१३ गींडवा१४, पोढ्या१५ पिलंग बिछाइ ।
जगजीवन इक रांम बिन, खाख मिल्या तन ताइ ॥१४॥
(१२. सोड़=रुई भरी रजाई)   (१३. सपेदी=श्वेत चादर) 
(१४. गींडवा=मसनद, तकिया)  (१५. पोढ्या=सुखपूर्वक लेट गये)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रजाई, सफेद झक चादर, तकिया, लगा कर पलंग बिछा कर सोनेवाले जीवों का भी, बिना प्रभु के यह शरीर खाख में मिल जाता है ।
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दल बादल१६ ऊमड़ चले, ढोल निसांण बजाइ ।
जगजीवन इक रांम बिन, गरद१७ मिल्या तन ताइ ॥१५॥
(१६. दल बादल=सेना समूह)  (१७. गरद=धूल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बड़ी ध्वनि के साथ बादल समूह उमड़ कर चले गये । एक प्रभु के नाम बिना उनकी देह भी गुबार में बदल कर रह गयी ।
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छत्र भूपति सब चले, राजा राणा सब ।
कहि जगजीवन रांम बिन, ह्वै गये बिरला वाव१८ ॥१६॥
(१८. बिरला वाव=प्राण वायु रहित)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बड़े बड़े छत्रपति राजा राणा प्रभु के बिना प्राणवायु के अभाव में मृतक वत होगये ।
(क्रमशः) 

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