सोमवार, 9 जनवरी 2023

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*आपै मारै आपको, आप आप को खाइ ।*
*आपै अपना काल है, दादू कहि समझाइ ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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दादू ऐसे मॅंहगे मोल का,एक श्वांस जे जाय।
चौदह लोक समान सो,काहे रेत मिलाय ॥
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🌹🙏 जय जिनेन्द्र 🙏🌹
*कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं*
*जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा !*
*ओशो - जिन सूत्र--(भाग--1) प्रवचन--01*
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एक-एक सांस इतनी बहुमूल्य है, तुम्हें पता नहीं। इसलिए महावीर कहते हैं, सोच लो, कहां लगा रहे हो अपनी श्वासों को ! जो मिलेगा, वह पाने योग्य भी है ? कहीं ऐसा न हो कि गंवाने के बाद पता चले कि जो मूल्य दिया था, बहुत ज्यादा था, और जो पाया वह कुछ भी न था। असली हीरों के धोखे में नकली हीरे ले बैठे !
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*कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं*
*जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा !*
*जिंदगी सिलसिला है: धोखे पर धोखा।*
"बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।' 
लगता है--लगता है, मूर्च्छा के कारण।
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कभी किसी कुत्ते को देखा, सूखी हड्डी को चबाते ! चबाता है कितने रस से ! तुम बैठे चकित भी होओगे कि सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा ! सूखी हड्डी में कोई रस तो है नहीं। सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा ! लेकिन होता यह है कि जब सूखी हड्डी को कुत्ता चबाता है तो उसके ही जबड़ों, जीभ से, तालू से लहू--सूखी हड्डी की टकराहट से लहू बहने लगता है। उसी लहू को वह चूसता है। सोचता है, हड्डी से रस आ रहा है। हड्डी से कहीं रस आया है ! अपना ही खून पीता है। अपने ही मुंह में घाव बनाता है। भ्रांति यह रखता है कि हड्डी से रस आता है। हड्डी से खून आ रहा है।
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जिन्होंने भी जागकर देखा है, थोड़ा अपना मुंह खोलकर देखा है, उन्होंने यही पाया है कि इंद्रिय-सुख सूखी हड्डियों जैसे हैं, उनसे कुछ आता नहीं। अगर कुछ आता भी मालूम पड़ता है तो वह हमारी ही जीवन की रसधार है। और वह घाव हम व्यर्थ ही पैदा कर रहे हैं। जो खून हमारा ही है, उसी को हम घाव पैदा कर-कर के वापिस ले रहे हैं।
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काम-भोग में जो सुख मिलता है, वह सुख तुम्हारा ही है जो तुम उसमें डालते हो। वह तुम्हारे काम-विषय से नहीं आता। स्त्री को प्रेम करने में, पुरुष को प्रेम करने में तुम्हें जो सुख की झलक मिलती है, वह न तो स्त्री से आती है न पुरुष से आती है, तुम्हीं डालते हो। वह तुम्हारा ही खून है, जो तुम व्यर्थ उछालते हो। पर भ्रांति होती है कि सुख मिल रहा है।
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कुत्ते को कोई कैसे समझाए ! कुत्ता मानेगा भी नहीं। कुत्ते को इतना होश नहीं। लेकिन तुम तो आदमी हो ! तुम तो थोड़े होश के मालिक हो सकते हो! तुम तो थोड़े जाग सकते हो !
"बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।'
"खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।'
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खुजली हो जाती है। जानते हो, खुजलाने से और दुख होगा, लहू बहेगा, घाव हो जाएंगे, खुजली बिगड़ेगी और, सुधरेगी न। सब जानते हुए, फिर भी खुजलाते हो। एक अदम्य वेग पकड़ लेता है खुजलाने का। जानते हुए, समझते हुए, अतीत के अनुभव से परिचित होते हुए, पहले भी ऐसा हुआ है, बहुत बार ऐसा हुआ है; फिर भी कोई तमस, कोई मोह-निद्रा, कोई अंधेरी रात, कोई मूर्च्छा मन को पकड़ लेती है, फिर भी तुम खुजलाए चले जाते हो !
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तुमने कभी खयाल किया, लोग जब खुजली को खुजलाते हैं तो बड़ी तेजी से खुजलाते हैं। क्योंकि वे डरते हैं। उन्हें भी पता है कि अगर धीरे-धीरे खुजलाया तो रुक जाएंगे। बड़े जल्दी खुजला लेते हैं, अपने को ही धोखा दे रहे हैं। मांस निकल आता है, लहू बह जाता है। पीड़ा होती है, जलन होती है। फिर वही अनुभव ! लेकिन दुबारा फिर खुजली होगी तो तुम भरोसा कर सकते हो कि तुम न खुजला ओगे ?
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कितनी बार तुमने क्रोध किया, कितनी बार क्रोध से तुम विषाद से भरे, कितनी बार तुम काम में गए, कितनी बार हताश वापिस आए, कितनी बार आकांक्षा की और हर बार आकांक्षा टूटी और बिखरी, कितनी बार स्वप्न संजोए--हाथ क्या लगा ? बस राख ही राख हाथ लगी। फिर भी, दुबारा जब आकांक्षा पकड़ेगी, दुबारा जब क्रोध आएगा, दुबारा जब काम का वेग उठेगा, तुम फिर भटकोगे।
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मनुष्य अनुभव से सीखता ही नहीं। जो सीख लेता है, वही जाग जाता है। मनुष्य अनुभव से निचोड़ता ही नहीं कुछ। तुम्हारे अनुभव ऐसे हैं जैसे फूलों का ढेर लगा हो, तुमने उनकी माला नहीं बनाई। तुमने फूलों को किसी एक धागे में नहीं पिरोया कि तुम्हारे सभी अनुभव एक धागे में संगृहीत हो जाते और तुम्हारे जीवन में एक जीवन-सूत्र उपलब्ध हो जाता, एक जीवन-दृष्टि आ जाती।
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अनुभव तुम्हें भी वही हुए हैं जो महावीर को। अनुभव में कोई भेद नहीं। तुमने भी दुख पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। तुमने भी सुख में धोखा पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। फर्क कहां है?

अनुभव तो एक से हुए हैं। महावीर ने अनुभवों की माला बना ली। उन्होंने एक अनुभव को दूसरे अनुभव से जोड़ लिया। उन्होंने सारे अनुभवों के सार को पकड़ लिया। उन्होंने उस सार का एक धागा बना लिया। उस सूत्र को हाथ में पकड़कर वे पार हो गए। तुमने अभी धागा नहीं पिरोया। अनुभव का ढेर लगा है, माला बना लेना ही साधना है। उसी की तरफ ये इशारे हैं।
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"खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।'
थोड़ा समझो। हमारी मान्यता से बड़ा फर्क पड़ता है। हमारी मान्यता से, हमारी व्याख्या से बहुत फर्क पड़ता है।
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तुमने कभी खयाल किया ? एक स्त्री को तुम आलिंगन कर लेते हो, सोचते हो, सुख मिला। सोचने का ही सुख है। ऐसा ही तो सपने में भी तुम सोच लेते हो, तब भी सुख मिल जाता है। सपने में कोई स्त्री तो नहीं होती, तुम्हीं होते हो। सपने में कोई स्त्री तो नहीं होती, तुम्हारी ही धारणा होती है। हो सकता है, अपनी ही दुलाई को छाती से चिपटाए पड़े हो, सपना देख रहे हो। जागकर हंसते हो कि कैसा पागलपन है !
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लेकिन सपने में भी उतना ही सुख मिल जाता है; शायद थोड़ा ज्यादा ही मिल जाता है, जितना कि जागने की स्त्री से मिलता है। क्योंकि जागते हुए स्त्री की मौजूदगी कुछ बाधा भी पैदा करती है। सपने में तो कोई भी नहीं, तुम अकेले ही हो, तुम्हारा ही सारा भावनाओं का खेल है।
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सपने में तुम सुख ले लेते हो स्त्री को आलिंगन करने का, तो थोड़ा सोचो तो! सुख तुम्हारी ही धारणा का होगा। जागते में भी इतना सुख नहीं मिलता, क्योंकि जागते में एक जीवित स्त्री उस तरफ खड़ी है। जीवित स्त्री में पसीने की बदबू भी है। जीवित स्त्री में कांटे भी हैं। जैसे तुममें हैं, ऐसे उसमें हैं।
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जीवित स्त्री की मौजूदगी थोड़ी बाधा भी डालती है। दूसरे व्यक्ति की मौजूदगी परतंत्र भी करती है। परतंत्रता की पीड़ा भी होती हैं। स्त्री हो सकता है, अभी राजी न हो कि आलिंगन करो, हाथ से हटा दे। लेकिन सपने में तो कोई तुम्हें हाथ से न हटा सकेगा।
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