सोमवार, 16 जनवरी 2023

*श्रीरामकृष्ण तथा कर्म*

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*दादू अविचल आरती, जुग-जुग देव अनन्त ।*
*सदा अखंडित एक रस, सकल उतारैं संत ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)श्रीरामकृष्ण तथा कर्म*
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भक्त - ब्राह्मसमाज के आदमी कहते हैं, संसार में कर्म करना ही अपना कर्तव्य है । इस कर्म के त्याग करने से कुछ न होगा ।
गिरीश - मैंने देखा, 'सुलभसमाचार' में यही बात लिखी है । परन्तु ईश्वर को जानने के लिए जो कर्म हैं, वे ही तो पूरे नहीं हो पाते, फिर ऊपर से दूसरे कर्म !
श्रीरामकृष्ण जरा मुस्कराकर मास्टर की ओर देखकर इशारा कर रहे हैं - 'वह जो कुछ कहता है, वही ठीक है ।'
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मास्टर समझ गये, कर्मकाण्ड बड़ा ही कठिन है ।
पूर्ण आये हैं ।
श्रीरामकृष्ण - किसने तुम्हें खबर दी ?
पूर्ण - शारदा ने ।
श्रीरामकृष्ण - (पास की स्त्री-भक्तों से) - इसे कुछ जलपान करने के लिए देना ।
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अब नरेन्द्र का गाना होगा । श्रीरामकृष्ण तथा भक्तों की सुनने की इच्छा है । नरेन्द्र गा रहा हैं –
(१) “परवत पाथार । व्योमे जागो रुद्र उद्यत बाज । देवदेव महादेव, कालकाल महाकाल, धर्मराज शंकर शिव तारो हर पाप ।"
(२) "हे दीनों को शरण देनेवाले ! तुम्हारा नाम बड़ा सुन्दर है । ऐ प्राणों में रमण करनेवाले ! अमृत की धारा बह रही है, श्रवण शीतल हो जाते हैं ।"
(३) "जो विपत्ति और भय से परित्राण करनेवाले हैं, ऐ मन, तुम उन्हें क्यों नहीं पुकारते ? मिथ्या भ्रम में पड़े हुए इस घोर संसार में डूब रहे हो, यह बड़े दुःख की बात है ।"
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पल्टू - यह गाना आप गाइयेगा ?
नरेन्द्र - कौनसा ?
पल्टू - "देखिले तोमार सेई अतुल प्रेम-आनने ।
कि भय संसार शोक घोर विपद शासने ।”
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नरेन्द्र गा रहे हैं –
"देखिले तोमार सेई अतुल प्रेम-आनने ।
कि भय संसार शोक घोर विपद शासने ॥
अरुण उदये आँधार जेमन जाय जगत् छाड़िये ।
तेमनि देव तोमार ज्योति मंगलमय विराजिले ।
भगत-हृदय वीतशोक तोमार मधुर सान्त्वने ॥
तोमार करुणा तोमार प्रेम हृदये प्रभु भाविले ।
उथले हृदये नयनवारि राखे के निवारिये ॥
जय करुणामय, जय करुणामय, तोमार प्रेम गाहिये ।
जाय यदि जाक प्राण तोमार कर्म साधने ॥"
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मास्टर के अनुरोध से फिर गा रहे हैं । मास्टर और भक्तगण हाथ जोड़े हुए गाना सुन रहे हैं –
(१) “ऐ मेरे मन ! हरि-रस मदिरा का पान करके तुम मत्त हो जाओ । पृथ्वी पर लोटते हुए तुम उनका नाम ले लेकर रोओ ।"
(२) "आसमान थाली है, उसमें सूर्य और चन्द्र दिये जल रहे हैं, नक्षत्र मोतियों की तरह चमक रहे हैं । मलयानिल धूप है । पवन चमर डुला रहा है । वन-राजियाँ उसकी जीती-जागती ज्योति हैं । हे भवखण्डन, यह तुम्हारी कैसी सुन्दर आरती हो रही है ! अनाहत नाद के द्वारा तुम्हारी भेरी बज रही है ।"
(३) "उसी एक पुरुषपुरातन - निरंजन पर तुम अपने चित्त को समाहित करो ।"
(क्रमशः)

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