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*दादू जब दिल मिली दयालु सौं,*
*तब अंतर कुछ नांहि ।*
*ज्यों पाला पाणी कों मिल्या,*
*त्यों हरिजन हरि मांहि ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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वह जो अननोन है, नोन के घेरे में कैसे पकड़ में आएगा। वह अज्ञात है, वह ज्ञात में कैसे पकड़ा जाएगा। इसलिए विचार करना जुगाली करने से ज्यादा नहीं है। कभी भैंस को दरवाजे पर बैठा हुआ जुगाली करते देखा हो। घास उसने खा लिया है, फिर उसी को निकाल-निकाल कर वह चबाती रहती है।
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जिसको हम विचार करना कहते हैं, वह जुगाली है। विचार हमने इकट्ठा कर लिए हैं किताबों से, शास्त्रों से, संप्रदायों से, गुरुओं से, काॅलेजों से, स्कूलों से, चारों तरफ विचारों की भीड़ है, वे हमने इकट्ठे कर लिए हैं, फिर हम उनकी जुगाली कर रहे हैं। हम उन्हीं को चबा रहे हैं बार-बार। लेकिन उससे अज्ञात कैसे हमारे हाथ में आ जाएगा ?
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अगर अननोन को जानने की आकांक्षा पैदा हो गई हो, अगर अज्ञात को पहचानने का खयाल आ गया हो, तो वह जो नोन है, उसे विदा कर देना होगा, उसे नमस्कार कर लेना होगा, उससे कहना होगा अलविदा। उससे कहना होगा, तुमसे क्या होगा, तुम जाओ और मुझे खाली छोड़ दो। शायद खालीपन में मैं उसे जान लूं जो मुझे पता नहीं है। लेकिन भरा हुआ मैं तो उसे कभी भी नहीं जान सकता हूं।
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इसलिए विचारक कभी नहीं जान पाते हैं और जो जान लेते हैं, वे विचारक नहीं हैं। जिसको हम मिस्टिक कहें, जिसको हम संत कहें, वे विचारक नहीं हैं, वे वह आदमी हैं, जिसने कहा कि रहस्य है। अब जानेंगे कैसे, खोजेंगे कैसे, सोचेंगे कैसे, जिसने कहा रहस्य है, मिस्ट्री है, हम अपने को मिस्ट्री में खोए देते हैं। शायद खोने से मिल जाए, जान लें। छोटी सी कहानी से समझाने की कोशिश करूं।
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मैंने सुना है, समुद्र के किनारे मेला भरा हुआ था। बहुत लोग उस मेले में गए। दो नमक के पुतले भी गए हुए हैं। और मेले के किनारे, समुद्र के तट पर खड़े होकर लोग सोच रहे हैं समुद्र की गहराई कितनी है। लेकिन वे किनारे पर खड़े होकर सोच रहे हैं। अब समुद्र की गहराई को उस किनारे पर खड़े होकर सोचने से क्या मतलब ?
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समुद्र कितना गहरा है, यह किनारे पर बैठ कर कैसे सोचा जा सकता है ! समुद्र में उतरना पड़ेगा। लेकिन विचार करने वाले हमेशा किनारों पर बैठे रहते हैं, वे कभी उतरते नहीं। उतरना और तरह की बात है, विचार करना और तरह की बात है। विचार करने के लिए किनारे पर बैठे होना ठीक है।
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नमक के पुतले भी आए हुए थे। उन्होंने कहाः लोग बहुत सोचते हैं, लेकिन कुछ पता नहीं चलता। कोई कितना बताता है, कोई कितना बताता है। और किनारे पर बैठे लोग विवाद करने लगे हैं और झगड़ा शुरू हो गया है। और किसी की बात न सही सिद्ध होती है, न गलत सिद्ध होता है, क्योंकि समुद्र में कोई गया नहीं है।
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तो नमक के पुतले ने कहाः मैं कूद कर पता लगा आता हूं कि कितना गहरा है। नमक का पुतला कूद भी सकता है, क्योंकि सागर से उसकी आत्मीयता है। नमक का पुतला है, सागर से ही निकला है, जाने में डर भी क्या है। उस सागर में कूद सकता है। वह कूद गया। सारे लोग किनारे पर खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह निकल आए और बता दे।
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वो जैसे-जैसे सागर में गहरे जाने लगा, वैसे-वैसे पिघलने लगा। वह नमक का पुतला था। वह सागर में पिघलने लगा, गहरा तो जाने लगा, लेकिन पिघलने लगा। वह गहरा पहुंच भी गया, उसने गहराई का पता भी लगा लिया, लेकिन जब तक पता लगाया, तब तक वह खुद समाप्त हो चुका था।
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उसे पता तो चल गया था कि सागर कितना गहरा है, लेकिन लौटने योग्य बचा नहीं कि लौट कर बाहर तट पर लोगों से कह सके कि इतना गहरा है। बहुत लोगों ने प्रतीक्षा की, सांझ होने लगी। उसके मित्र ने कहा कि पता नहीं, मित्र कहां खो गया है। मैं उसका पता लगा आता हूं। वह मित्र जो था नमक का पुतला, वह भी कूद गया। फिर रात घनी हो गई, वह भी नहीं लौटा। वह भी पहुंच गया मित्र के पास। लेकिन जब तक पहुंचा, तब तक खुद खो गया।
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फिर सुबह वह मेला उजड़ गया। फिर हर वर्ष वहां मेला भरता है और लोग पूछते हैं, उस आस-पास रहने वाले लोगों से, पुतले वापस तो नहीं लौटे ? समुद्र की कितनी गहराई है इसका पता लगाना है ? लेकिन वे खुद समुद्र की गहराई में जाने को राजी नहीं।
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*परमात्मा के किनारे बैठ कर कुछ भी पता नहीं चल सकता है। जाना पड़े और कठिनाई यह है कि जो जाता है, वह खो जाता है। जो जाता है, वह लौट कर कहने योग्य नहीं रह जाता। जो जाता है, वहां से मूक होकर लौटता है। जो जाता है वहां, सब खो जाता है उसका। उसकी आंखों से शायद हम पहचान लें। शायद उसके उठने चलने से पहचान लें। शायद उसके जीने से पहचान लें। लेकिन नहीं, हम शब्दों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पहचानते। हम हजारों साल तक शब्दों पर विचार करते रहते हैं।*
सत्य का दर्शन-(प्रवचन-05)
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