मंगलवार, 3 जनवरी 2023

समाधि की अवस्था से लौटना

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*को साधु जन उस देश का, आया इहि संसार ।*
*दादू उसको पूछिये, प्रीतम के समाचार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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महिमाचरण (श्रीरामकृष्ण से) - महाराज, क्या कोई व्यक्ति समाधि की अवस्था से फिर साधारण सांसारिक अवस्था पर आ सकता है ?
श्रीरामकृष्ण (महिम से, धीरे से)- मैं तुम्हें एकान्त में समझाऊंगा । केवल तुम्ही इस योग्य हो कि तुमसे कहा जाय ।
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"कुँवर सिंह ने भी मुझसे यही प्रश्न किया था । तुम जानते हो कि जीव और ईश्वर में बड़ा अन्तर है । उपासना तथा तपस्या द्वारा जीव अधिक से अधिक समाधि-अवस्था प्राप्त कर सकता है । पर फिर वह उस अवस्था से वापस नहीं आ सकता । परन्तु जो ईश्वर का अवतार होता है वह समाधि अवस्था से नीचे उतर भी सकता है ।
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उदाहरणार्थ, जीव उसी प्रकार का है जैसे किसी राजा के यहाँ एक अफसर । वह राजा के सातमंजिला महल में अधिक से अधिक बाहर के दरबार तक जा सकता है, परन्तु राजा के लड़के की पहुँच सातों मंजिलों तक होती है, और वह बाहर भी जा सकता है ।
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यह बात हरएक आदमी कहता है कि समाधि की अवस्था से फिर कोई लौट नहीं सकता, अगर ऐसी बात है तो शंकर तथा रामानुज जैसे महात्माओं के बारे में तुम क्या कहोगे ? उन्होंने ‘विद्या का मैं’ रखा था ।"
महिम – हाँ, यह बात सचमुच ठीक है; नहीं तो वे इतने बड़े ग्रंथ कैसे लिख सकते थे ?
श्रीरामकृष्ण - और देखो, प्रह्लाद, नारद तथा हनुमान जैसे ऋषियों के भी उदाहरण हैं । उन्होंने भी समाधि प्राप्ति कर लेने के बाद भक्ति रखी थी ।
महिम – हाँ महाराज, यह बात ठीक है ।
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श्रीरामकृष्ण - बहुत से लोग ऐसे होते हैं कि वे दार्शनिक वादविवाद में ही पड़े रहते हैं और अपने को बहुत बड़ा समझते हैं । शायद वे थोड़ा-बहुत वेदान्त भी जान लेते हैं, परन्तु यदि किसी मनुष्य में सच्चा ज्ञान है तो उसमें अहंकार नहीं हो सकता, अर्थात् समाधि-अवस्था में यदि मनुष्य ईश्वर से एकरूप हो जाय तो उसमें अहंकार नहीं रह जाता । समाधि के बिना सच्चा ज्ञान असम्भव है । समाधि में मनुष्य ईश्वर से एक हो जाता है । फिर उसमें अहंकार नहीं रह जाता ।
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"जानते हो यह किस प्रकार से होता है ? देखो, जैसे दोपहर को सूरज बिलकुल ठीक सिर पर होता है । उस समय यदि तुम अपने चारों ओर देखो तो तुम्हें अपनी परछाई नहीं दिखायी देगी । इसी प्रकार तुममें ज्ञान अथवा समाधि प्राप्त कर लेने के बाद अहंकार की परछाई नहीं रह जाती ।
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"परन्तु यदि तुम किसी में सत्यज्ञान-प्राप्ति के बाद भी अहंकार का भास देखो तो समझ लो कि या तो यह 'विद्या का मैं' है अथवा 'भक्ति का मैं' अथवा 'दास मै'; वह 'अविद्या का मैं’ नहीं होता ।
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"फिर यह भी समझ लो कि ज्ञान और भक्ति दोनों समानान्तर मार्ग हैं । इनमें से तुम किसी का भी अनुसरण करो, अन्त में पहुँचोगे ईश्वर को ही । ज्ञानी ईश्वर को एक दृष्टि से देखता है और भक्त दूसरी से । ज्ञानी का ईश्वर तेजोमय होता है और भक्त का रसमय ।"
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भवनाथ श्रीरामकृष्ण के पास ही बैठे ये सब बातें सुन रहे थे ।
भवनाथ (श्रीरामकृष्ण से) - महाराज, क्या मैं एक प्रश्न पूछूँ ? 'चण्डी' को मैं ठीक से नहीं समझ सका । उसमें ऐसा लिखा है कि जगदम्बा सब जीवों का संहार करती है - इसका क्या अर्थ है ?
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श्रीरामकृष्ण - यह सब उनकी लीला है । यह विचार मेरे मन में भी आया करता था, पर बाद में मैं समझ गया कि यह सब माया है । उत्पत्ति और संहार ईश्वर की माया है ।
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गिरीश श्रीरामकृष्ण तथा अन्य भक्तों को ऊपर छत पर ले गये जहाँ भोजन परोसा गया । आकाश में अच्छी चाँदनी छिटकी हुई थी । सब भक्त अपने अपने स्थान पर बैठ गये । उन सबके सामने श्रीरामकृष्ण एक आसन पर बैठे । सब लोग बड़े प्रसन्नचित थे । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । वे उनके सामने की पंक्ति में बैठे ।
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बीच-बीच में श्रीरामकृष्ण उनसे पूछते जाते थे, 'कहो क्या हाल है - आनन्द से होने दो ।' श्रीरामकृष्ण भोजन कर ही रहे थे कि बीच में से उठकर वे नरेन्द्र के पास आये और अपनी थाली में से कुछ तरबूज का शरबत और दही लेकर उनको दिया और बड़े मधुर शब्दों में उनसे कहा, 'लो, यह खा लो ।' इसके बाद वे फिर अपने आसन पर चले गये ।
(क्रमशः)

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