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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९९)*
*राग सोरठ ॥१९॥**(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*२९९. विरही(ललित ताल)*
*विरहणी वपु न सँभारै ।*
*निशदिन तलफै राम के कारण, अंतर एक विचारै ॥टेक॥*
*आतुर भई मिलन के कारण, कहि कहि राम पुकारै ।*
*सास उसास निमिष नहिं विसरै, जित तित पंथ निहारै ॥१॥*
*फिरै उदास चहुँ दिशि चितवत, नैन नीर भर आवै ।*
*राम वियोग विरह की जारी, और न कोई भावै ॥२॥*
*व्याकुल भई शरीर न समझै, विषम बाण हरि मारे ।*
*दादू दर्शन बिन क्यों जीवै, राम सनेही हमारे ॥३॥*
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भादी०-वियोगिजनो विरहावस्थायां शरीरध्यासमपि विस्मरति । यथा गोपिका व्यत्यस्त- वस्त्राभरणा: कृष्णान्तिकं ययुः । स्वप्रियं भगवन्तमेव स्मरन् विलपन् व्याकुलो भवति । कथं मे प्रभुदर्शनं भवेदित्येवं रूपेण तस्य मनसि विचारधारोल्लसति । प्रभुदर्शनाय तन्मनो व्याकुलं भवति । पौन: पुन्येन राम रामेति नामोच्चारणं कुर्वन् दर्शनाय प्रार्थयते । श्वासोश्वासबेलायामपि रामं न विस्मरति । किन्तु तदागमनमार्ग प्रतीक्षन् प्रतिक्षणं रौदति । खिन्न: सन् इतस्ततो भ्रमति । चतुर्दिक्षु पश्यति । नेत्राभ्यामश्रुजलं विमुञ्चति । दर्शनाभावेन विरहाग्नौ सततं ज्वलति । नान्यत्किमपि प्रियं रोचते तस्मै । व्याकुली भवति नहि शरीरदशामपि जानाति । यतोहि वियोगबाणाघातैः प्रबलै पीडितोऽस्ति । हे राम! त्वमेव वद । त्वां विना कथमहं जीवेयम् । अस्मिन् भजने निर्विषयया वृत्त्या भाव्यं साधकेनेति निरूपितम् ॥ सैव सुस्थिरावृत्तिरैशं पदमीक्षितुमर्हा ।
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वियोगी जन को विरहावस्था में शरीर की सुधि(अध्यास) नहीं रहती है, जैसे-गोपियों को नहीं रहा, वे उलटे-सुलटे कपड़े पहन कर भगवान् के पास पहुँचती थीं । इससे अनुमान होता है कि उनको शरीर का भान ही नहीं था, प्रेम में उन्मत्त हो रही थी । ऐसे विरही भक्तों के मन में “भगवान् के दर्शन मुझे कैसे होंगे?” ऐसी विचारधारा चलती रहती है ।
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प्रभु के दर्शन के लिये उनका चित्त व्याकुल रहता है । बार बार “हे राम ! हे राम !” इन शब्दों को बोलता हुआ दर्शनों की प्रार्थना करता रहता है । श्वास-प्रश्वास लेते हुए भी भगवान् को नहीं भूलता और उनके आने के मार्ग को देखता हुआ रोता रहता है । दुःखी होकर इधर उधर घूमता रहता है । चारों दिशाओं में देखता रहता है । नेत्रों में अश्रुधारा बहती रहती है ।
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दर्शनों के अभाव में विरहाग्नि में जलता रहता है । उसे कुछ भी प्रिय नहीं लगता, व्याकुल रहता है । शरीर की दशा को भी नहीं जानता क्योंकि वियोग वाणों से पीड़ित रहता है । हे राम ! आप ही कहिये कि मैं आपके दर्शनों के बिना कैसे जीवित रहूंगा? इस भजन में मनोवृत्ति को निर्विषय रखना चाहिये । निर्विषया वृत्ति ही सुस्थिर रह सकती है और वृत्ति की स्थिरता में ही प्रभु को देख सकता है ।
(क्रमशः)
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