शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ११८*

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*दादू तलफै पीड़ सौं, बिरही जन तेरा ।*
*ससकै सांई कारणै, मिलि साहिब मेरा ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मल्हार ७ (गायन समय वर्षा ऋतु)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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११८ विरह दु:ख । त्रिताल
राम बिना श्रावण सह्यो न जाय,
काली घटा काल ह्वै आई, दामिनी दग्धे माय१ ॥टेक॥
कनक अवास२ वास सब फीके, बिन पिय के सु प्रसंग ।
महा विपति बेहाल लाल३ बिन, लागो विरह भुवंग४ ॥१॥
सूनी सेज हेज५ कहुं कासौं, अबला धरै न धीर ।
दादुर६ मोर पपीहा बोले, ते मारत हैं तीर ॥२॥
सकल श्रृंगार भार ह्वै लागे, मन भाव कछु नांहि ।
रज्जब रंग कौन से कीजे, जे पिव नांहीं मांहि ॥३॥१॥
११८-११९ में अपना विरह दु:ख दिखा रहे हैं -
✦ राम के दर्शन बिना श्रावण मास सहा नहीं जा रहा है । हे माई१ ! यह काली घटा काल रूप होकर दु:ख देने में लगी हुई है, बिजली जला रही है ।
✦ प्रियतम राम के मिलन प्रसंग बिना सुवर्ण के महलों२ का निवास आदि सब भोग फीके लग रहे हैं । प्रियतम३ प्रभु के बिना मुझ पर महा विपत्ती आ रही है । मैं दु:ख से व्याकुल हूं, विरह-सर्प४ खाने के पीछे लग रहा है । मेरी हृदय शय्या आपके बिना शून्य है ।
✦ मैं प्रेम५ की बात किससे कहूँ । आपके बिना मैं अबला नारी धैर्य नहीं धारण कर सकती । मेंढक६ मोर और चातक पक्षी जो बोलते हैं, सो तो मानो मेरे बाण मार रहे हैं ऐसा खेद दे रहे हैं । जब प्रियतम हृदय में नहीं हैं तब प्रेम७ किससे किया जाय ।
✦ अत: संपूर्ण साधन रूप श्रृंगार भार रूप होकर दु:ख देने लगे हैं । मन को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है ।
(क्रमशः)

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