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*कहा करूँ, मेरा वश नांही, और न मेरे अंग सुहाइ ।*
*पल इक दादू देखन पावै, तो जन्म जन्म की तृषा बुझाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मल्हार ७ (गायन समय वर्षा ऋतु)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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११९ । मत्त ताल
ब्रह्म बिन निशदिन विपति विहात१,
दर्शन दूर परस२ पिव नांहिं, नहिं संदेश३ सुनात ॥टेक॥
पीर प्रचंड४ खंड५ कर नाखत, वैरी विरह विख्यात ।
सांई सुरति करो सुन्दरि दिशि, सोच न सिंह शंकात ॥१॥
नख शिख शूल मूल मन बेधत, बरणत बने न बात ।
झीनी६ झाल७ लाल८ बिन लपटत, सो क्यों हूं न बुझात ॥२॥
सब सुख हीन दीन दीरघ दुख, विसरी पांच रु सात ।
रज्जब रही चित्र पुतरी ह्वै, मान हुं सतरंज मात ॥३॥२॥
✦ ब्रह्म साक्षात्कार के बिना रात्रि दिन दु:ख से ही जाते१ हैं । प्रियतम के दर्शनों से मैं दूर ही हूँ, उनका चरण स्पर्श२ मुझे नहीं मिल रहा है । न वे कुछ समाचार३ ही सुना रहे हैं ।
✦ मेरे हृदय में भयंकर४ पीड़ा हो रही है । यह प्रसिद्ध शत्रु विरह हृदय के टुकड़े५ टुकड़े कर देगा । प्रभो ! मुझ सुन्दरी की ओर वृत्ति कीजिये । यह चिन्ता रूप सिंह मेरे शरीर को खाने में कुछ भी शंका नहीं कर रहा है अर्थात चिंता से शरीर सूखता जा रहा है ।
✦ नख से शिखा तक शरीर में पीड़ा है । यह दु:ख का मूल कारण विरह मन को विद्ध कर रहा है । मेरा दु:ख इतना बढ गया है कि - उसकी वार्ता का वर्णन भी मुझ से नहीं होता । प्रियतम८ प्रभु के बिना विरहाग्नि की सूक्ष्म६ ज्वालायें७ मेरे चारों ओर लग रही हैं । वह प्रभु के दर्शन बिना किसी प्रकार भी अन्य उपाय से नहीं बुझती ।
✦ मैं सम्पूर्ण सुखों से रहित रह कर दीन हो रही हूं, मेरे को बड़ा दु:ख है, मैं सात और पांच १२ भूषण पहनना भूल गई हूं अर्थात दश इन्द्रिय और मन बुद्धि इन बारह कॊ सुधारना भी भूल गई हूं । मैं अब चित्र लिखित पुतली सी हो रही हूँ । शतरंज के शाह का मोहरा चारों ओर से घिर जाने की सी दशा मेरी हो रही है । मुझ इस दु:ख से मुक्त होने का उपाय प्रभु दर्शन के बिना अन्य कोई भी नहीं दिख रहा है ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित राग मल्हार ७ समाप्तः ।
(क्रमशः)
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