गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

*रघवा प्रणवत४ रामजी*

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*दादू मेरा एक मुख, कीर्ति अनन्त अपार ।*
*गुण केते परिमित नहीं, रहे विचार विचार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ हैरान का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*अथ मध्वाचार्य संप्रदाय*
*छप्पय-*
*रघवा प्रणवत रामजी, सम दोष हु नहिं दीयते ॥*
*आदि वृक्ष विधि नमो, निगम१ निर्मल रस छाते।*
*मध्वाचारय मधुर, पीवत अमृत रस माते ॥*
*तासु पधित भू प्रकट, संत अरु महंत विस्तरे ।*
*हरि पूजे हरि भजै, तिनहिं संग बहुत निस्तरे ॥*
*मैं बापुरो२ वर्णों कहा, जानी जाय न जीयते३ ।*
*रघवा प्रणवत४ रामजी, मम दोषहु नहिं दीयते५ ॥२४७॥*
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इस संप्रदाय के आदि आचार्य ब्रह्माजी हैं, सो मानो वृक्ष के समान हैं। उस ब्रह्मा रूप वृक्ष में वेद१ रूप निर्मल रस के छाते लगे हैं। मध्वाचार्य जी उन छातों का मधुर अमृत रस पान करके हुए थे। उनकी पद्धति पृथ्वी पर प्रकट है।
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उस पद्धति से सन्त और महन्तों का विस्तार हुआ है अर्थात् इस सम्प्रदाय में बहुत से संत महन्त हुए हैं। जो हरि को ही पूजते थे और हरि का ही भजन करते थे। उन संत महन्तों के संग से बहुत से प्राणियों का उद्धार हुआ है।
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मैं तुच्छ२ प्राणी उनका क्या वर्णन कर सकता हूँ। क्योंकि उन सब संत महन्तों की चर्य्या साधारण जन से३ जानी ही नहीं जाती। अतः मैं राघवदास रामजी को ही प्रणाम४ करके संतोष करता हूँ। क्यों कि रामजी को प्रणाम करने पर सभी सन्त-महन्तों को प्रणाम हो जाता है और जिन को मैं जान सका हूँ उनका वर्णन जानकारी के अनुसार करता हूँ। शेष के न वर्णन का दोष मुझे कोई नहीं देंगे५ ।
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विशेष- इस संप्रदाय का उपदेश पहले हंस भगवान् ने ब्रह्माजी को दिया। ब्रह्माजी ने नारदजी को, नारदजी ने वेद व्यासजी को, वेद व्यास जी ने सुबुद्धाचार्य को, सुबुद्धाचार्य ने नरहर्यांचार्य को, नरहर्याचार्य ने मध्वाचार्य को दिया।
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मद्रास प्रान्त के मंगलूर जिले में उडूपी क्षेत्र से दो-तीन मील दूर वेललि ग्राम में भार्गवगोत्रीय पिता नारायण भट्ट के अंश द्वारा माता वेदवती के गर्भ से वि० सं० १२९५ की माघ शुक्ला सप्तमी के दिन मध्वाचार्य का जन्म हुआ था। कुछ लोग आश्विन शुक्ला दशमी को इनका जन्म मानते हैं किन्तु वह इनके वेदान्त साम्राज्य के अभिषेक का दिन है, जन्म का नहीं है।
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माता-पिता ने बड़ी तपस्या करके इनको पुत्र रूप में प्राप्त किया था। पिता ने इनका नाम वासुदेव रखा था किन्तु ये कूदने फाँदने, तैरने और कुश्ती लड़ने में ही लगे रहते थे, इससे बहुत से लोग इनको 'भीम' नाम से पुकारते थे।
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इन्होंने ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही अद्वैत मत के संन्यासी अच्युतपक्षाचार्य से संन्यास ले लिया था। इनका संन्यास का नाम 'पूर्णप्रज्ञ' था। इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। एक दिन इनने अपने गुरुजी से गंगास्नान और दिग्विजय की आज्ञा माँगी। गुरुजी शिष्य के वियोग की संभावना से व्याकुल हो गये।
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तब अनन्तेश्वर जी ने कहा- परसों सामने वाले सरोवर में गंगाजी आयँगी और वे यात्रा नहीं कर सकेंगे। सचमुच तीसरे दिन तालाब में हरे पानी के स्थान में सफेद पानी हो गया, तरंगें दीखने लगीं। आचार्य की यात्रा नहीं हो सकी। कुछ दिनों के बाद यात्रा की, भगवद्भक्ति का प्रचार किया।
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उडुपी में शालग्राम तथा श्रीकृष्ण का मन्दिर बनवाया। तभी से वह रजतपीठपुर(उडूपी) मध्वमतानुयायियों का तीर्थ बन गया। अपने अन्तिम समय में आप सरिदन्तर नामक स्थान में रहते थे। शरीरान्त के समय पद्मनाथ तीर्थ को रामजी की मूर्ति और शालग्राम जी देकर अपने मत प्रचार की आज्ञा दी परम धाम को पधार गये।
(क्रमशः)



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