शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

'अहं' का त्याग

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*दादू मुझ ही मांही मैं रहूँ, मैं मेरा घरबार ।*
*मुझ ही मांही मैं बसूँ, आप कहै करतार ॥* 
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"केशव सेन से मैंने कहा था, 'अहं' का त्याग करना होगा । इस पर केशव ने कहा, "तो महाराज, दल फिर कैसे रह सकता है ?’
"मैंने कहा, यह तुम्हारी कैसी बुद्धि है, - तुम 'कच्चे मैं' का त्याग करो, - जो 'मैं' कामिनी और कांचन की ओर ले जाता है । परन्तु मैं 'पक्के मैं' - 'भक्त के मैं' - 'दास के मैं' का त्याग करने के लिए नहीं कहता । मैं ईश्वर का दास हूँ, - ईश्वर की सन्तान हूँ, इसका नाम है 'पक्का मैं’ । इसमें कोई दोष नहीं ।"
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त्रैलोक्य - अहंकार का जाना बहुत कठिन है । लोग सोचते हैं, अहंकार मुझमें नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - कहीं अहंकार न हो जाय, इसलिए गौरी 'मैं' का प्रयोग ही नहीं करता था - 'ये' कहता था ! मैं भी उसकी देखा देखी 'ये' कहने लगा, 'मैंने खाया है' यह न कहकर कहता था, 'इसने खाया है ।’ यह देखकर एक दिन मथुरबाबू ने कहा, 'यह क्या है बाबा - तुम ऐसा क्यों कहते हो ? यह सब उन लोगों को कहने दो, उनमें अहंकार है । तुम्हारे कुछ अहंकार थोड़े ही है, तुम्हें इस तरह बोलने की कोई जरूरत नहीं ।’
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"केशव से मैंने कहा, 'मैं' जाने का तो है ही नहीं, अतएव उसे दासभाव से पड़ा रहने दो - जैसे दास पड़ा रहता है । प्रह्लाद दो भावों से रहते थे । कभी 'सोऽहम्' का अनुभव करते थे - तुम्हीं 'मैं’ हो - मैं ही 'तुम' हूँ । फिर जब अहं-बुद्धि आती थी, तब देखते थे, मैं दास हूँ - तुम प्रभु हो । एक बार पक्का सोऽहम् अगर हो गया, तो फिर दासभाव से रहना आसान हो जाता है - मैं तुम्हारा दास हूँ इस भाव से ।
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(कप्तान से) "ब्रह्मज्ञान होने पर कुछ लक्षणों से समझ में आ जाता है । श्रीमद्भागवत में ज्ञानी की चार अवस्थाओं की बातें लिखी हैं - पहली बालवत्, दूसरी जड़वत्, तीसरी उन्मत्तवत्, चौथी पिशाचवत् । पाँच साल के लड़के जैसी अवस्था हो जाती है । फिर कभी वह पागल की तरह व्यवहार करता है ।
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“कभी जड़ की तरह रहता है । इस अवस्था में वह कर्म नहीं कर सकता, कर्म छूट जाते हैं । परन्तु अगर कहो कि जनक आदि ने तो कर्म किया था, तो असल बात यह है कि उस समय के आदमी कर्मचारियों पर भार देकर निश्चिन्त रहते थे, और उस समय के आदमी भी बड़े विश्वासी होते थे ।"
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श्रीरामकृष्ण कर्मत्याग की बातें करने लगे और जिनकी काम पर आसक्ति है, उन्हें अनासक्त होकर कर्म करने का उपदेश देने लगे ।
श्रीरामकृष्ण - ज्ञान के होने पर मनुष्य अधिक कर्म नहीं कर सकता ।
त्रैलोक्य – क्यों ? पवहारी बाबा इतने योगी तो हैं, परन्तु लोगों के झगड़े और विवादों का फैसला कर दिया करते हैं - यहाँ तक कि मुकदमे का भी फैसला कर देते हैं । 
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श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह ठीक है, दुर्गाचरण डाक्टर इतना शराबी तो है, परन्तु काम के समय उसके होश दुरुस्त ही रहते हैं - चिकित्सा के समय किसी तरह की भूल नहीं होने पाती । भक्ति प्राप्त करके कर्म किया जाय तो कोई दोष नहीं होता । परन्तु है यह बड़ी कठिन बात, बड़ी तपस्या चाहिए ।
"ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं, मैं यन्त्र स्वरूप हूँ । कालीमन्दिर के सामने सिक्ख लोग कह रहे थे, 'ईश्वर दयामय हैं ।' मैंने पूछा, 'दया किन पर करते हैं ?
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"सिक्खों ने कहा, 'महाराज, हम सब पर उनकी दया है ।'
"मैंने कहा, 'सब उनके लड़के हैं तो लड़कों पर फिर दया कैसी ? वे अपने लड़कों की देखरेख कर रहे हैं, वे नहीं देखेंगे तो क्या अड़ोसी-पड़ोसी आकर देखेंगे ?' अच्छा देखो, जो लोग ईश्वर को दयामय कहते हैं वे यह नहीं समझते कि वे किसी दूसरे के लड़के नहीं, ईश्वर की ही सन्तान हैं ।"
कप्तान - जी हाँ, ठीक है, पर वे ईश्वर को अपना नहीं मानते ।
(क्रमशः) 

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