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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९७)*
*राग नट नारायण १८*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
*२९७. हैरान । उत्सव ताल*
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*हम तैं दूर रही गति तेरी ।*
*तुम हो तैसे तुम हीं जानो, कहा बपुरी मति मेरी ॥टेक॥*
*मन तैं अगम दृष्टि अगोचर, मनसा की गम नाँहीं ।*
*सुरति समाइ बुद्धि बल थाके, वचन न पहुँचैं तांहीं ॥१॥*
*जोग न ध्यान ज्ञान गम नांही, समझ समझ सब हारे ।*
*उनमनी रहत प्राण घट साधे, पार न गहत तुम्हारे ॥२॥*
*खोज परे गति जाइ न जानी, अगह गहन कैसे आवे ।*
*दादू अविगत देहु दया कर, भाग बड़े सो पावे ॥३॥*
*इति राग नट नारायण समाप्त ॥१८॥पद ७॥*
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भा०दी०-हे प्रभो ! तव स्वरूपज्ञानं मनस इन्द्रियेभ्योऽपि परम् । यादृशं तव स्वरूपं तादृशं ज्ञानं तु भवानेव ज्ञातुं शक्नोति । नहि मदीय तुच्छबुद्ध्या त्वां ज्ञातुं प्रभवामि । भवान् मनसाऽप्यगम्यो बुझ्याप्यज्ञेयोऽतः कोऽपि त्वां मनो बुद्ध्या ज्ञातुं न शक्नोति । यत्र बुद्धिरपि कुण्ठिता भवति भवन्तं ज्ञातुं तत्र का वराकी- वाक्शक्तिः । सद्धिरपि भवान् ब्रह्माकारत्यैव ज्ञायते न तु फलव्याप्त्या । भवतां वास्तविकं स्वरूपं तु ज्ञानेन ध्यानेन योगेनाष्यशक्यं ज्ञातुम् । अतएव योगिनो ज्ञानिनो ध्यातार सर्वे व्यापकं त्वामन्विष्यन्ति तेऽप्यन्विष्यान्विष्य श्रान्ताः, यतोहि भवानग्राह्योऽस्ति, न हि त्वां ग्रहीतुं कोऽपि प्रभवति । परन्तु कश्चिदेव तव कृपया त्वां विजानाति । स एव महाभाग्यवानस्ति ।
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उक्तं हि कठोपनिषदि-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥
इति महामण्डलेश्वर श्रीमदात्मारामकृत भावार्थदीपिकायां नटनारायणराग: समाप्तः ॥
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हे प्रभो ! आपके स्वरूप का ज्ञान मन इन्द्रियों से भी परे है । जैसा आपका स्वरूप है वैसा तो आप ही अपने को जान सकते हैं । मेरी यह तुच्छ बुद्धि तो जान ही कैसे सकती है ? आप मन से भी अगम्य, दृष्टि से भी अदृश्य, बुद्धि से भी अज्ञेय हैं । अतः आपको कोई भी नहीं जान सकता ।
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जहां पर आपको जानने में बुद्धि भी कुण्ठित हो जाती है तो यह विचारी वाणी तो कैसे जान सकती है ? सत्पुरुष भी आपको बुद्धि की वृत्ति द्वारा ही जान पाते हैं । फल व्याप्ति से तो कोई जान ही नहीं सकता । आपका वास्तविक स्वरूप तो ज्ञान, ध्यान, योग से भी नहीं जाना जा सकता है । इसलिये योगी, ध्यानी, ज्ञानी मध्य में ही बिना जाने हार मान लेते हैं और पार नहीं पा सके हैं ।
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जो प्राणी को रोक कर समाधिनिष्ठ हैं, वे भी आपके स्वरूप का अन्त नहीं जान सके और जो सर्वव्यापक आपको खोज रहे हैं वे भी खोज खोजकर थक गये । क्योंकि आपका स्वरूप तो अग्राह्य है, अतः आपको कोई भी नहीं जान पाता । परन्तु कोई भाग्यशाली जिन पर आपकी कृपा हो गई है, वे ही आपकी कृपा के द्वारा जान सकते हैं ।
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कठ में लिखा है कि –
यह परब्रहम परमत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत सुनने से प्राप्त हो सकता है । किन्तु जिसको परमात्मा स्वीकार कर लेते हैं, उसी के द्वारा आप जाने जाते हैं । जिसके हृदय में उसको जानने की उत्कट इच्छा तथा प्रेम होता है । ऐसे ही साधक पर भगवान् कृपा करते हैं और अपनी योगमाया को हटाकर उसके आगे सच्चिदानन्द रूप में प्रकट हो जाते हैं ।
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इति नटनारायण राग का पं. आत्मारामस्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥१८॥
(क्रमशः)
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