बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९३

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९३)* 
*राग नट नारायण १८*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*२९३. राज मृगांक ताल*
*कब देखूं नैनहुँ रेख रति, प्राण मिलन को भई मति ।*
*हरि सौं खेलूं हरि गति, कब मिल हैं मोहि प्राणपति ॥टेक॥*
*बल कीती क्यों देखूंगी रे, मुझ मांही अति बात अनेरी ।*
सुन साहिब इक विनती मेरी, जनम-जनम हूँ दासी तेरी ॥१॥*
*कहै दादू सो सुनसी सांई, हौं अबला बल मुझ में नांही ।*
*करम करी घर मेरे आई, तो शोभा पीव तेरे तांई ॥२॥*
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भा०दी०-भवदभिस्नेहयन्त्रिताशयस्य जीवात्मनो मे बुद्धिर्यदि दर्शनं कुर्यात्तर्हि शान्तिमिया । दित्याशाव्याकुलिता प्राणपतिं भगवन्तं द्रष्टुं सा त्वरते । कदा च तदात्मस्वरूपभूता तेन सहानन्दानुभवरूपां क्रीडां करिष्ये । अहो बलवदनिष्टानुबन्धिनो दुरितानि मे सन्ति । अतो न दृठात्तं द्रष्टुं शक्नोमि । हे प्रभो! मम वार्ता श्रृणु । अहं जन्मजन्मान्तरे भवतां दास्यस्मि । अतो दर्शनार्थं प्रार्थये मम स्वामित्वेन भवता मम प्रार्थना श्रोतव्या, इत्याशासेऽहम् । हे प्रियतम ! अबलाऽस्मि । नास्ति मे किमपि साधनबलम् । अत: स्वयं हि कृपां विधाय मम हृदयगृहे समागच्छतु । तदैव भवतां शोभा स्यात् ।
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उक्तं हि भक्तिरसायने-
आम्नायाभ्यसने न किं फलमलं कृच्छ्राद्यनुष्ठानत:
किं योगेन जपेन वा सुतपसा त्यागेन यागेन च ।
एक: शुद्धतरो न चेद् व्रत मनोभावो हरौ सोऽस्ति चेत्
स्यातेनैव कृतार्थता किमपरैरत्र प्रमाणं हि ताः॥
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भगवान् के प्रेम से जकड़े हुए जीवात्मा की बुद्धि को अणुमात्र भी प्रभु के दर्शन हो जायँ तो उसको शान्ति मिल सकती है । इस आशा से व्याकुल हुई प्राणों के स्वामी भगवान् को देखने के लिये बुद्धि जल्दी कर रही है । कब मैं भगवान् का रूप धारण करके उनके साथ आत्मानन्द की क्रीडा का खेल खेलूंगी ?
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मेरे तो बड़े बड़े बलवान् अनिष्टों को पैदा करने वाले पाप खड़े हैं तो फिर मैं उनसे हठ करके कैसे दर्शन पा सकूंगी ? हे प्रभो ! मेरी बात सुनिये, मैं जन्म जन्मान्तरों से आपकी दासी हूं, अतः आपसे दर्शनों की प्रार्थना कर रही हूं । आप मेरे स्वामी हैं । अब आप को मेरा प्रार्थना अवश्य सुननी चाहिये । मैं ऐसी आपसे आशा कर रही हूं । हे प्रियतम ! मैं अबला हूं । मेरे में कोई साधन का बल नहीं है । आप ही कृपा करके मेरे हृदय में पधारो । तब ही आपकी शोभा रहेगी ।
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भक्तिरसायन में लिखा है कि –
यदि भक्त के हृदय में शुद्ध भाव नहीं है तो वेद पढने से क्या फल है, और कठिन कठिन साधनों के अनुष्ठान से भी क्या लाभ है ? योग, यज्ञ, जप, तप, इनके करने से भी कोई फल नहीं मिलता ।
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यदि भगवान् के प्रति हृदय में शुद्ध भाव है, तब भी इन साधनों का कोई फल नहीं । केवल हृदय की शुद्ध भावना से ही भगवान् प्रसन्न हो जायंगे और दर्शन भी हो जायगा । इस विषय में गोपिकायें ही प्रमाण हैं ।
(क्रमशः)

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