शनिवार, 18 मार्च 2023

*करहु बिचार समझि जिय अपनैं*

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*जब समझ्या तब सुरझिया, गुरुमुख ज्ञान अलेख ।*
*ऊर्ध्व कमल में आरसी, फिर कर आपा देख ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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ऐ हौं हारी रे जिय१ तुम्ह सूं कहि कहि२ ॥
जोइ जोइ बात न भावै३ मेरे पिव कूँ,
सोइ सोइ लागत प्यारी ॥टेक॥
करत बिकार संक नहिं मानत,
महा मूढ़ अहंकारी ।
साध कहत सो समझत नांहीं,
अंति होत है ख्वारी ॥
करहु बिचार समझि जिय अपनैं,
गुर कौ सबद उरि धारी ।
टीला सरण गहौ गोब्यंद४ कौ,
अबकै लेहु उबारी ॥३५॥
(पाठान्तर : १. जीव. २. कहि के आगे ‘हारी’ और है, ३. भावत, ४. गोविन्द)
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मन को प्रबोध देते हुए कहते हैं, हे मन ! मैं तुमसे कहते-कहते थक गई किन्तु तू तेरी चाल से अभी तक डिगा नहीं । जो-जो बात=आचरण=विचार मेरे प्रियतम को अच्छे नहीं लगते वे-वे ही तुझको अच्छे लगते हैं ।
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महामूर्ख अहंकारी ! तू निर्बाध विषय-विकारों में रमण करता है किन्तु तनिक सी भी मन में शंका नहीं लाता है कि इसका परिणाम क्या होगा । ब्रह्मनिष्ठ साधु-संत तुझको जो उपदेश देते हैं, उसको तू समझता नहीं है, जिस कारण अन्त में तू बर्बाद होता है ।
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गुरुमहाराज के उपदेश को हृदय में धारण करके ऊपर गम्भीरतापूर्वक विचारकर और उनके उपदेशानुसार समझ जा । टीला कहता है, गोविन्द की शरण का आश्रय ले ले ताकि अबकी बार वह तेरा उद्धार कर दे ॥३५॥
(क्रमशः)

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