शुक्रवार, 17 मार्च 2023

*२८. काल कौ अंग १०९/११२*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग १०९/११२*
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तारा तेज अमर नहीं, अमर नहीं ससि सूर ।
कहि जगजीवन अमर हरि, अमर निरंजन नूर ॥१०९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि न तो ताराओं का तेज स्थायी है न ही सूर्य चन्द्र अमर है । अमर तो हरि व उनका निरंजन तेज ही अमर है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, निद्रा झंपै आइ ।
जीव जगावौ मिहरि१ करि, दूरि करौ हरि ताहि ॥११०॥
(१. मिहरि=दया)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु अज्ञान निद्रा ने जकड़ा है । आप कृपा कर उसे दूर करो ।
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कहि जगजीवन रांमजी, निद्रा घोर अंधार ।
दीपक नांम प्रकास हरि, प्रांण पहुंचावौ पार ॥१११॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है यह निद्रा अज्ञान रुपी अंधकार है । इसमें यदि नाम स्मरण रुपी दीपक जला दिया जाये तो प्रभु पार पहुंचा सकते हैं भव से पार कर सकते हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, निंद्रा मींच रु काल । 
अयुक्त अहार अनीति कर, झंखै आल जंजाल२ ॥११२॥
(२. झंखै आल जंजाल=व्यर्थ बकबक करे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह जीव जब निद्रावस्था जो मृत्यु व काल के समान है ।  में व्यस्त  रह जब अनुचित भोजन, व अनीति व्यवहार करता है तो  व्यर्थ की अनर्गल अलाप करता है ।
(क्रमशः) 

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