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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ११६/११८*
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निद्रा मारै जीव कूं, सूछिम दाबै आइ ।
बालक सूं बूढ़ा करै, आवरदा५ घटि जाइ ॥११६॥
(५. आवरदा=आयु)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि निद्रा जीव को मारती है । यह सूक्ष्म होकर हावी होती है । जीव को अज्ञान में बूढा कर आयु घटा देती है ।
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निद्रा मारै जीव कूं, जीव न जांणै मारि ।
जगजीवन सोवै सुखी, रान न कहै पुकारि ॥११७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि निद्रा जीव को मार देती है । जीव इसका दमन नहीं कर पाता जो इन्द्रिय निग्रह द्वारा किया जा सकता है । जीव सोने में ही सुख मानता है वह राम नाम नहीं पुकारता जो मूल तत्त्व है ।
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निद्रा म्रितक म्रित्यु म्रितक, संसै१ म्रितक बिनास१ ।
अमर नांम रसनां महरि, सु कहि जगजीवनदास ॥११८॥
(१. संसै म्रितक बिनास=“संशयात्मा विनश्यति”-भगवद्गीता)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अज्ञान मृत्यु ही है । और मृत्यु भी अज्ञान है क्योंकि आतमा कभी मरता नहीं । फिर जो इसे मृत्यु मानता है वह ज्ञान से दूर मृत्यु वरणी है । संदेह भी विनाश कारी है । अमर नाम तो प्रभु का स्मरण है जो प्रभु कृपा से मिलता है ।
इति काल का अंग संपूर्ण ॥२८॥
(क्रमशः)
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