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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३१०)*
*राग सोरठ ॥१९॥**(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*३१०. उपास्य परिचय । वर्ण भिन्न ताल*
*सोई देव पूजूं, जे टांची नहिं घड़िया, गर्भवास नहीं औतरिया ॥टेक॥*
*बिन जल संजम सदा सोइ देवा, भाव भक्ति करूं हरि सेवा ॥१॥*
*पाती प्राण हरि देव चढ़ाऊँ, सहज समाधि प्रेम ल्यौ लाऊँ ॥२॥*
*इहि विधि सेवा सदा तहँ होई, अलख निरंजन लखै न कोई ॥३॥*
*ये पूजा मेरे मन मानै, जिहि विधि होइ सु दादू न जानै ॥४॥*
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भादी०-मदीय उपास्यो देवो निरञ्जननिराकारः सच्चिदानन्दघनरूपं परब्रह्मैव । येन साधनं विनैव केवलं संकल्पमात्रेणेदं ब्रह्माण्डजातमुत्पन्नं कृतम् । न च स गर्भमवतरति, जलं विनैव शुद्धं संयमितं भवति । स च परमात्मा श्रद्धया भक्या च मया पूज्यते । तस्मै प्राणार्पणमेव तुलसी- दलार्पणमस्ति । तस्मिन् प्रेम्णा मनोलयं कृत्वा सहजसमाधौ तत्समीप एव निवसामि । इत्थं तस्य देवस्य ये हृदये सततं सेवा-पूजा भवति । तस्यैतादृशी पूजैव प्रियाऽस्ति । ईदृशी पूजैव मे मनःप्रिया परन्तु सा कथं भवतीति नाहं जानामि । स: स्वयमेव स्वोपासनां जानाति न चान्यः । आमेरनगरे मानसिंह-महाराजेन कदाचित् पृष्टो यद् भवतां कीदृशी सेवापूजा भवति? साऽनेन भजनेन उक्ता उक्तं हि भगवता शङ्कराचार्येण- स्वच्छस्य पाद्यमर्थ्य शुद्धस्याचमनं कुतः । निर्मलस्य कुत: स्नानं वस्त्रं विश्वोदरस्य च ॥ एवमेव परा पूजा सर्वावस्थास सर्वदा ।
एक बुद्ध्या तु देवेश विधेया ब्रह्मवित्तमैः ॥
अत्र गर्भ नावतरतीत्यस्यायमभिप्राय: । गर्भवासो हि स्वकर्मक्रिया पाकजन्य एव जीवानां भवति, तथास्य परमात्मनो नास्ति । ऐतेनेश्वरकर्मपारतन्त्र्यं जीवानामिव निरस्तम् । अतएव प्रजापति- श्चरति गर्भे अन्तरा जायमानो बहुधा विजायते, इति श्रुतिरपि संगच्छते । अजायमानोऽपि बहुधा विजायते । अत्र हि जीवानामिव गर्भवासत्वव्यावृत्तये व्युपसर्ग: सार्थकः, अन्यथा जनी प्रादुर्भाव इति धातुमात्रस्य प्रयोग एव तावदर्थलाभात् तद्वैयर्थ्य स्पष्टमेव ॥
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मेरा उपास्य देव निरंजन सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है । जिसने बिना ही साधन के सकल ब्रह्माण्ड को संकल्प मात्र से पैदा कर दिया । वह गर्भवास में नहीं आता । जल के बिना ही सदा संयमित रहता है । मैं उस देव की पूजा श्रद्धा-भाव से करता हूं । मेरे प्राणों का अर्पण ही तुलसी-दल का अर्पण है । उसमें मैं अपने मन को लीन कर सदा उनके पास ही रहता हूं । मेरे हृदय में ब्रह्म की सेवा पूजा की धारा सदा चलती ही रहती है । ऐसी पूजा ही मेरे मन को अच्छी लगती है, परन्तु वह पूजा कैसे होती है ?
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मैं उसको नहीं जानता । किन्तु वह स्वयं ही अपनी पूजा को जानता है, दूसरा कोई नहीं । आमेर नगर में राजा मानसिंह ने प्रश्न किया था कि आपकी पूजा सेवा कैसी होती है ? उसका उत्तर इस भजन से दिया है । भगवान् शंकराचार्य लिखते हैं कि – जो सदा स्वच्छ है उसको पाद्य और अर्ध्य कैसे दें ? जो नित्य शुद्ध है, उसको आचमन की क्या अपेक्षा है? निर्मल को स्नान कैसा ? संपूर्ण विश्व जिसके उदर में है, उसको वस्त्र कैसा ? ब्रह्मवेत्ताओं को सर्वदा सब अवस्थाओं में इसी प्रकार एक बुद्धि से भगवान् की परा-पूजा करनी चाहिये ।
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गर्भवास में वह नहीं आता, इसका भाव यह है कि जीवात्मा अपने कर्म-फल भोगने के लिये गर्भ में आता है, क्योंकि जीव कर्माधीन है और परमात्मा गर्भ में नहीं आता क्योंकि वह स्वतन्त्र है । इससे यह श्रुति की संगति बैठ जाती है कि प्रजापति गर्भ में विचरण करता है । बिना पैदा हुए ही बहुधा रूपों को धारण करता है । अतः जीवों की तरह परमात्मा कर्मफल भोगने के लिये गर्भवास में नहीं आता । अतः विजायते में भी सार्थक हो जाता है । अन्यथा ‘जनि प्रादुर्भावे’ इस धातु मात्र से ही अर्थ का लाभ हो जाता, फिर उपसर्ग या देना व्यर्थ ही है ।
(क्रमशः)
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