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*सांई सन्मुख जीवतां, मरतां सन्मुख होइ ।*
*दादू जीवन मरण का, सोच करै जनि कोइ ॥*
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*साभार : @Subhash Jain*
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*हम तो जीवन वहां खोज रहे हैं, जहां जीवन नहीं है।* *हम तो वहां खोज रहे हैं, जहां जीवन का कोई संबंध नहीं है।*
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जब तक मैं स्वयं को नहीं जानता और जीवन के स्वर को नहीं जानता, मेरा सारा जानना, सारा पाना, क्या अर्थ रखता है ? यह प्रश्न उठ जाए तो आदमी की दुनिया में धर्म की शुरुआत हो जाती है। उस आदमी को मैं धार्मिक नहीं कहता, जो पूछता है ईश्वर है या नहीं।
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धार्मिक आदमी को ईश्वर से कोई भी प्रयोजन नहीं है। उस आदमी को मैं धार्मिक नहीं कहता, जो कहता है सृष्टि किसने बनाई। सृष्टि के बनाने के, न बनाने के प्रश्न वैज्ञानिक पूछ सकते हैं। धार्मिक आदमी को दो कौड़ी का मतलब नहीं है कि किसने बनाई। मैं उस आदमी को धार्मिक नहीं कहता, जो कहता है कितने नरक हैं, कितने स्वर्ग।
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स्वर्ग और नरक से धार्मिक आदमी को क्या प्रयोजन ! नरक की चिंता वे करते हैं, जो ऐसे काम कर रहे हों कि नरक जाना पड़े या स्वर्ग की चिंता ऐसे लोग करते हैं, जो नरक जाने के काम कर रहे हैं, लेकिन स्वर्ग का पता चल जाए, तो कुछ रिश्वत देकर स्वर्ग में भी प्रवेश पा सकें। लेकिन धार्मिक आदमी को स्वर्ग-नरक से क्या प्रयोजन।
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धार्मिक आदमी का एक ही प्रश्न है, एक ही जिज्ञासा है, उसका एक ही अल्टीमेट कनसर्न, जिसको कहें कि उसका जो आखिरी लगाव है, वह एक है, इस बात को जान लेने का कि मैं हूं, लेकिन मैं क्यों हूूं ? मेरा अस्तित्व है, लेकिन मेरा अस्तित्व क्यों है ? अगर मैं न होता तो क्या हर्ज था ? और अगर मैं हूं, तो प्रयोजन क्या है ? क्या मैं अपने इस होने को क्षुद्रतम में खोता चला जाऊं ?
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रोज सुबह उठूं और वही करूं चालीस-पचास वर्षों तक ? रोज दफ्तर, रोज दुकान, रोज मकान, रोज सोना, रोज खाना ? क्या मैं पचास वर्षों तक कोल्हू के बैल की तरह यही करता रहूं या यह भी पूछूं कि मैं क्यों हूं ? किसलिए हूं ? क्या प्रयोजन है मेरे होने का ? धार्मिक आदमी यह जानना चाहता है कि मैं क्यों हूं आखिर ?
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आखिर मेरे होने की जरूरत क्या है ? और जैसे ही कोई आदमी यह प्रश्न पूछेगा कि मेरी जरूरत क्या है, वैसे ही वह पूछना शुरू करेगा कि मैं यह भी तो जान लूं कि मैं कौन हूं, क्या हूं, कहां से हूं, क्यों हूं और इस सारी बात की खोज की तरफ अगर ध्यान चला जाए, तो जीवन को जाना जा सकता है। लेकिन हम तो जीवन वहां खोज रहे हैं, जहां जीवन नहीं है। हम तो वहां खोज रहे हैं, जहां जीवन का कोई संबंध नहीं है।
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हम वहां खोजते रहें, खोजते रहें, हम खोजते-खोजते खुद मिट जाएंगे, पर जीवन का हमें कोई पता नहीं पड़ पाएगा। मरते हुए आदमी से पूछो, वह भी यही कर रहा था, जो आप कर रहे हैं। लेकिन उसके पहले भी मरने वाले लोगों से उसने यह नहीं पूछा था। हर आदमी मर रहा है और हर आदमी वही कर रहा है, जो दूसरे मरने वाले ने किया है। और कोई भी यह नहीं पूछ रहा कि हम यह क्या कर रहे हैं ?
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एक रात एक महल के ऊपर सम्राट सोया है, सो नहीं पा रहा है, नींद नहीं लग रही है। किस सम्राट को नींद लगती है! सम्राट को नींद लगना बहुत मुश्किल है। जो बहुत लोगों की नींद छीन लेते हैं, उनकी खुद की नींद कैसे लग सकती है। वह करवटें बदल रहा है। सम्राट हमेशा ही करवटें बदलते हैं। और सम्राटों को करवट बदलने में सुविधा रहे, इसलिए बहुत अच्छे गद्दे-तकियों का इंतजाम करना पड़ता है। सोने वाला बहुत गद्दे-तकियों की फिकर नहीं करता।
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जिसे नींद आती है, उसके लिए जमीन भी बहुत बहुमूल्य गद्दी हो जाती है और जिसे नींद नहीं आती उसे गद्दियां भी कांटें ही मालूम पड़ती रहती हैं। वह करवटें बदल रहा है, आधी रात बीत गई, तब उसे ख्याल आता है कि कोई ऊपर छप्पर पर चल रहा है। वह पूछता हैः कौन है ऊपर ? वह घबड़ा गया है।
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सम्राटों के पास बंदूकें हैं, तलवारें हैं, पहरे हैं। असल में पहरे उन्हीं के पास हैं, जो भीतर बहुत डरे हुए हैं। जो भीतर डरा हुआ न हो, उसके आस-पास पहरे की कोई भी जरूरत नहीं। सिर्फ डरे हुए आदमी के आस-पास बंदूकें के पहरे होते हैं; वह एकदम डर गया। कौन है ऊपर ? उसने चिल्ला कर पूछा।
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ऊपर से किसी ने कहाः घबड़ाइए मत, परेशान मत होइए, आपसे मुझे कोई मतलब नहीं, मेरा ऊंट खो गया है। मैं अपने ऊंट को खोज रहा हूं। उस सम्राट ने कहाः कोई पागल आदमी मालूम पड़ते हो, महलों की छतों पर ऊंट खोया करते हैं, छप्परों पर, खप्पड़ों पर ऊंट खोते हैं। सम्राट ने पहरेदार को उठाया और कहा कि देखो कौन है ऊपर, पकड़ो उसे। लेकिन वह आदमी न मालूम कहां चला गया।
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लेकिन सम्राट रात भर सोचता रहा, इसका मतलब क्या है कोई आदमी छप्पर पर ऊंट खोजता है! वैसे ही नींद नहीं आई, रात भर सोचता रहा, सुबह-सुबह झपकी लगी, तो उसे सपना दिखाई पड़ा कि सपने में वह आदमी फिर छप्पर पर ऊंट खोज रहा है। वह उससे पूछता है कि क्या ऊंट छप्परों पर खोजे जाते हैं ? ऊंट छप्परों पर खोते ही नहीं हैं। तो वह आदमी उससे सपने में कहता है।
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और तुम वहां जीवन खोज रहे हो, जहां जीवन खोया ही नहीं। अगर जीवन मिल सकता है धन में, यश में, पद में, प्रतिष्ठा में, तो ऊंट भी छप्परों पर मिल सकते हैं। ऊंट तो छप्परों पर खो भी सकते हैं, लेकिन जीवन, जीवन न तो धन में खोया है, न पद में, न बाहर के सामान में, न मकानों में, जीवन तो वहां है जहां तुम...वह घबड़ा कर जाग गया।
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सुबह वह अपने दरबार में बैठा है, चिन्तित है और तभी एक आदमी दरबार में घुसता हुआ भीतर चला आया। द्वारपाल ने रोकने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं रुका। द्वारपाल ने उससे पूछा भी, कहां जाते हो ! उस आदमी ने कहा कि मैं इस धर्मशाला में थोड़े दिन के लिए मेहमान होना चाहता हूं।
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मैं इस सराय में रुकना चाहता हूं। उस द्वारपाल ने कहा, पागल हो गए हो ! मालूम होता है इस बस्ती में पागल छूट गए हैं। रात एक पागल मकान के ऊपर चढ़ा हुआ था और जो कहता था कि ऊंट खो गया है, एक तुम पागल हो कि राजा के महल को सराय कह रहे हो, धर्मशाला कह रहे हो। यह सराय नहीं है, सम्राट का निवास स्थान है। उसने कहा कि तुमसे बात नहीं करूंगा। सम्राट से ही बात करूंगा।
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वह भीतर गया। दरबार में उसने जाकर सम्राट से कहा कि मैं इस सराय में कुछ दिन मेहमान होना चाहता हूं। आपको कोई एतराज तो नहीं ? तो सम्राट ने कहा कि बड़ी मुश्किल की बातें हैं। यह मेरा निवास स्थान है, सराय नहीं। लेकिन वह अजनबी आदमी कहने लगा निवास स्थान ! कुछ वर्षों पहले मैं आया था, तब यहां मैंने इसी सिंहासन पर दूसरे आदमी को बैठे देखा था।
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सम्राट ने कहा कि वह मेरे पिता थे। उनका देहावसान हो गया है। उस अजनबी आदमी ने कहाः मैं उनके पहले भी आया था, तब मैंने तीसरे ही आदमी को बैठे देखा था। सम्राट ने कहा, वे मेरे पिता के पिता थे, वे भी चल बसे। वह आदमी हंसने लगा, उसने कहा कि जहां मेरे देखते-देखते रहने वाले बदल जाते हैं, उसको निवास स्थान कहना उचित होगा ? तुम कितने दिन तक यहां रहोगे ?
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जहां तक मैं समझता हूं, जब मैं दोबारा आऊंगा, चैथा आदमी मिलेगा और वह कहेगा पिता जी थे वह, जो पहले बैठे थे, उनका देहावसान हो गया। इसलिए मैं इसे सराय कहता हूं और कुछ दिन यहां ठहर जाना चाहता हूं, तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है। उस सम्राट को एकदम ख्याल आया कि यह आदमी वही होना चाहिए, जो रात को ऊंट खोज रहा था। उस सम्राट ने उतर कर उसके पैर पकड़ लिए।
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उस आदमी ने कहा, मेरे पैर मत पकड़ो, अपने ही पैर पकड़ लो, क्योंकि तुम्हारे पैर तुम्हें वहां ले जा रहे हैं, जहां तुम्हें जाना नहीं है। तुम्हारे पैर तुम्हें वहां पहुंचा रहे हैं, जहां पहुंचने को कुछ नहीं है। तुम्हारे पैर तुम्हें उस यात्रा पर गतिमान किए हुए हैं, जो शून्य में समाप्त होती है। अपने ही पैर पकड़ो और उस तरफ चलो, जहां जीवन है, जहां सत्य है।
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वह आदमी, वह सम्राट उसी दिन उस महल को छोड़ कर चला गया। उसके घर के लोग कहने लगे, महल को छोड़ कर आप कहां जा रहे हैं ? उसने कहा, महल होता तो मैं छोड़ कर न जाता, यह सराय है, जिसे छोड़ ही देना पड़ेगा।उसे पकड़ कर रखने में परेशानी ही होने को है और कुछ भी नहीं।
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लेकिन हम जिंदगी में सराय को घर समझे हुए हैं। कौड़ियों को धन समझे हुए हैं। आस-पास की भीड़ को मित्र-परिवार समझे हुए हैं। और एक चीज जिसे समझने से कुछ हो सकता था, उसको भर अंधेरे में डाले हुए हैं स्वयं के होने को अंधेरे में डाले हुए हैं।
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कोई अगर आपकी छाती पर आकर द्वार खटखटाए और पूछे कौन है भीतर, तो जैसा बायजीद ने कहा था खोज रहा हूं पचास साल से, मुझे पता नहीं चला; ऐसा आप कह सकेंगे कि खोज रहा हूं, पता नहीं चला है। खोजा ही नहीं है ! खोजा ही नहीं है ! खोजें और पता न चले, तो भी एक बात है; लेकिन खोजा ही न हो, तब तो किसी दूसरे को उत्तरदायी भी नहीं ठहराया जा सकता।
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*ओशो।*
*"जीवन क्रांति के सूत्र"* -
(प्रवचन -०१)("जीवन क्या है?)
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