गुरुवार, 9 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२३*

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*दादू मन फकीर जग तैं रह्या, सतगुरु लीया लाइ ।*
*अहनिश लागा एक सौं, सहज शून्य रस खाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२३ गुरु ज्ञान । झूमरा
संत हु अगह गहे गुरु ज्ञान,
मनसा वाचा कबहु न छूटे, बैठाये निज स्थान ॥टेक॥
चंचल अचल भये बुधि गुरु की, मनहु१ मनोरथ भान२ ।
सु स्थिर सदा एक रस लागे, माते३ अमृत पान ॥१॥
बहते रहे४ मान सदगुरु की, समझ परी५ उर आन६ ।
पंच पचीस स्वाद सब छूटे, ले जाते जो तान ॥२॥
थाके अथक परे पंगुल हो, चंचलता दे दान ।
जन रज्जब जग में नहीं पसरे, गुरु वायक७ सुन कान ॥३॥४॥
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साधक संतों के गुरु ज्ञान ग्रहण करने संबन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं -
✦ जो इन्द्रियादि से ग्रहण नहीं किया जाता, उस ब्रह्म का ज्ञान साधक संत गुरुजनों से इस प्रकार ग्रहण करते हैं जो मन वचन से कभी भी अलग नहीं होता, निरंतर मन में ब्रह्म का ही मनन रहता है और ब्रह्म संबंधी ही वाणी बोलते हैं । इस अभ्यास के कारण ही ज्ञान उनको निज स्थान ब्रह्म में स्थिर रूप से स्थित करता है ।
✦ गुरु की ज्ञान रूप बुद्धि से मन१ के मनोरथ नष्ट२ करके चंचलता से अचल स्थिति में आ जाते हैं । ब्रह्म के स्वरूप में सम्यक स्थिर होकर सदा एक रस ब्रह्म में चिन्तन रूप अमृत पान में लग कर मस्त३ हो जाते हैं ।
✦ सदगुरु की शिक्षा मान कर उसे हृदय में लाते६ हैं, तब वह भलीभाँति समझ में आती५ है फिर संसार सरिता में बहने से रुक४ जाते हैं अर्थात जन्मादि संसार से मुक्त हो जाते हैं । जो पहले खैंचातान करके विषयों में ले जाते थे, उन पंच ज्ञानेन्द्रियों और पच्चीस प्रकृतियों के स्वाद और उग्र स्वभाव सब छूट जाते हैं ।
✦ जो विषयों में जाने से अथक थे अर्थात थकते नहीं थे, वे मन इन्द्रियां थक पंगु हो जाते हैं मानो चंचलता को तो उन्होंने दान कर दिया हो ऐसे निश्चल हो जाते हैं । इस प्रकार गुरु के वचनों७ को कानों से सुनकर साधक संतों के मन इन्द्रिय जगत में नहीं फैलते हैं ।
(क्रमशः)

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