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*दादू उस गुरुदेव की, मैं बलिहारी जाऊँ ।*
*जहाँ आसण अमर अलेख था, ले राखे उस ठाऊँ ॥*
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साभार : @Kaushik Chaitanya
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१- गुरु से दीक्षा लेने से अधिक गुरु-चरणों में शरणागति जरूरी है।
२- गुरु मिले या न मिले इससे कोई फर्क नहीं पड़ता किन्तु शिष्यत्व प्रकट हुआ है या नहीं, इससे फर्क पड़ता है। जिस क्षण शिष्यत्व प्रकट हो जाएगा, गुरु स्वयं खोजते हुए चला आएगा।
३- गुरु का मिलना ही पर्याप्त है ।
४- इस जगत की सबसे बड़ी क्रान्तिकारी घटना है गुरु का प्रकट हो जाना।
५- मुक्ति के लिए दीक्षा का कर्मकांड जरूरी नहीं है, केवल गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा और अखंड विश्वास ही पर्याप्त है।
६- तुम कहो कि फलाने हमारे गुरु हैं, इसमें कोई बड़ी बात नहीं; गुरु कह दे ये फलां मेरा चेला है, ये बड़ी बात है।
७- गुरु धोबी है और शिष्य है कपड़ा। शिष्य अनेक जन्मों से वासना के मैल से गंदला कपड़ा है जिसे गुरु भगवन्नाम के साबुन से घिसकर, हरिनाम-स्मृति की शिला पर पटक पटककर सारे कल्मष को धो देता है।
८- शिष्य की सामर्थ्य नहीं है कि वो गुरु की सेवा कर सके। वास्तव में असली सेवक तो गुरु है जो शिष्य का मैल दिन-रात धोते रहता है।
९- गुरु अपने शिष्यों को सपने में भी नहीं गिरने देता।
१०- गुरु के द्वार पर कोई विधान नहीं होता। वास्तविक गुरु वो है, जिसका मुक्त विधान हो।
११- गुरु की कुटिया में प्रेम का दीप प्रज्वलित रहता है।
१२- गुरु के आँगन में शुभ-चरित्र की धूप सुवासित रहती है। शुभ-चरित्र का एक ही अर्थ है शिशुवत होना ।
१३- गुरु की बगिया में भक्ति के फूल प्रतिक्षण खिले रहते हैं।
१४- इस जगत में गुरु के चरण ही शरणागति का एक मात्र स्थान हैं और शिष्य जो चींटी, जौंक जैसा कुटिल है, उसने यदि गुरु के चरण पकड़ लिए तो उसे बिना साधन के ही हरि के द्वार में प्रवेश मिल जाता है। गुरु निस्साधन भक्ति देते हैं जो उनकी अहेतुक कृपा है।
१५- अन्त में गुरु परमात्मा हैं।
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प्रार्थना करें ~ मिले कोई ऐसा संत फकीर,
जो पहुंचा दे भवदरिया के तीर !!
#Respect_Our_Gurus
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