मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १४०*

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*चार पहर चारों युग बीते, रैनि गँवाई भोर ।*
*अवधि गई अजहूँ नहिं आये, कतहूँ रहे चित-चोर ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ६)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मारू ९(गायन समय युद्ध)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१४० प्रभु प्रेम । चौताल
सखी हूं१ मोहनैं२ मोही३,
कन४ कन करि काढि लीनी, ऐसे सोही५ ॥टेक॥
भूली सब काम धाम, तन मन दोही६ । 
अशन वसन बिसरि गई, सूखा लोही ॥१॥
श्रवण हुँ वाणी अधारि, समझा दोही७ । 
जन रज्जब जोये८ बिन, रंग विरोही९ ॥२॥५॥
प्रभु प्रेम की स्थिति बता रहे हैं - 
✦ सखि ! मैं१ विश्व विमोहन२ प्रभु से मोहित३ हो रही हूँ । वे प्रभु५ ऐसे हैं कि उनने मुझे किंचित४ किंचित करके संसार से निकाल लिया है । 
✦ तन मन दोनों६ होने वाले घर के काम और घर को भी मैं भूल गई हूं । समय पर भोजन करना, ढंग से वस्त्र पहनना भी भूल गई हूं । 
✦ शरीर का रक्त सूख गया है श्रवणों से संतों की वाणी सुनकर उसी७ प्रभु को अपना आधार समझा है किंतु उन प्रभु को देखे८ बिना मेरा रंग बिगड़९ रहा है शांति नहीं है । 
(क्रमशः)

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