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*दादू विरहनी कुरलै कुंज ज्यूं,*
*निशदिन तलफत जाइ ।*
*राम सनेही कारणै, रोवत रैन विहाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३२ । धीमा ताल
आज निशि न क्यों हूं घटत१, प्राण पियारे बाझ२ हो ।
दीर्ध३ रैन भई बिन दर्शन, आतम राम हिं रटत ॥टेक॥
राक्षस रैनि अधिक अरिहुन ते, तारे तीरनि तकि४ तकि जटत५ ।
चन्द्र हि चंद्र बाण ह्वै छूटत, मारतहु नेक६ न हटत ॥१॥
जामनि७ जुग प्रमाण अति बाढ़ी, कामिनि कंत बिना क्यों कटत८ ।
रज्जब रूदन करत करूणा मय, विकसि९ विकसि उर फटत ॥२॥१३॥
✦ प्राण प्रिय प्रभु के बिना२ आज रात्रि किसी प्रकार भी कम१ नहीं हो रही है । आत्मा स्वरूप राम का नाम रटते रटते उनके दर्शन बिना रात्रि बहुत बड़ी३ हो गयी है ।
✦ यह रात्रि रूप राक्षस शत्रुओं से भी अधिक है, देख४ देख कर तारे रूप तीर मार५ रहा है चन्द्रमा रूप चन्द्राकार बाण इस रात्रि द्वारा छोड़ा जा रहा है, यह मारते हुये किंचित६ मात्र भी नहीं हटती है ।
✦ यह रात्रि७ युग प्रमाण से भी अत्यधिक बढ गई है । प्रियतम प्रभु के बिना संत सुन्दरी से कैसे पूरी८ होगी ? ज्यों ज्यों विरह का विकास९ होता जा रहा है त्यों त्यों मेरा हृदय फटता जा रहा है । दयामय प्रभों ! मैं आपके दर्शनार्थ रो रहा हूं, दर्शन देने की दया शीघ्र ही कीजिये ।
(क्रमशः)
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