बुधवार, 12 अप्रैल 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #३१६

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३१६)*
*राग सोरठ ॥१९॥**(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*३१६. प्रीति अखंडित (दादरा)*
*इहि विधि वेध्यो मोर मना, ज्यों लै भृंगी कीट तना ॥टेक॥*
*चातक रटतैं रैन बिहाई, पिंड परै पै बान न जाई ॥१॥*
*मरै मीन बिसरै नहि पानी, प्राण तजे उन और न जानी ॥२॥*
*जलै शरीर न मोड़ै अंगा, ज्योति न छाड़ै पड़ै पतंगा ॥३॥*
*दादू अब तै ऐसैं होहि, पिंड परै, नहीं छाडूं तोहि ॥४॥*
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भा०दी०-यथा भृङ्गीविद्ध कीटः तच्छब्दं श्रुत्वा भयेन कीटतां विहाय भृङ्गीरूपो भवति तथैव मे मनोऽपि प्रभु-प्रेम्णि विद्धं प्रभुरूपं जातम् । यथा पिपासिनश्चातकः पक्षी स्वातिनक्षत्रजलविन्द्वं याचमानो रात्रि क्षपयति तथैव ममाऽपि प्रभुस्मरणेनायुर्व्यतीतं भवति । परन्तु रामनामस्मरणाभ्यासो मनसो नापगतो भवति यथा वा मत्स्यो जलविहीनो वपुस्त्यजति परन्तु जलस्नेहं न विमुञ्चति । न चान्याश्रयत्वं श्रयते, अनन्यशरणत्वात् । यथा वा पतङ्गोऽग्नौ स्वशरीरं दाहयति परन्तु ज्वालां न विमुञ्चति, ममाप्यैतादृशी दशा जाता । अहं स्वशरीरं परित्यजामि परन्तु प्रभुं न कदापि विस्मरामि ।
अनन्यशरणागतत्वात् ।
उक्तं हि पद्मपुराणे भूमि
मोहान्धकारपटले महती वगर्ते ।
संसारनाम्नि सततं पतितं हि कृष्ण !
कृत्वा तरी मम हि दीनभयातुरस्य
तस्माद् विकृष्य शरणं नय मामितस्त्वम् ॥
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जैसे भृंगी से डसा हुआ कीड़ा उसके शब्दों को बार बार सुनकर भय से भृंगी रूप हो जाता है । वैसे ही मेरा मन प्रभु के प्रेम से बींधा हुआ उसका चिन्तन करते हुए प्रभु रूप हो गया ।
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जैसे चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र के पानी की बूंद के लिये प्यासा होकर पुकारता-पुकारता रात पूरी कर देता है, वैसे ही मेरी आयु भी प्रभु के भजन में पूरी हो गई । अब शरीर भले ही चला जाय लेकिन राम नाम के जप के अध्यास से वह भगवान् मेरे मन से निकल नहीं सकते ।
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जैसे मछली शरीर को भले ही त्याग दे लेकिन जल के स्नेह नहीं त्याग सकती, ऐसे ही हे प्रभो ! मेरी भी दशा हो गई है कि शरीर छोड़ सकता हूं लेकिन आपको नहीं त्याग सकता और न कभी आपको भूल सकता हूं क्योंकि मैं आपके अनन्य शरण के आ चुका हूं ।
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पद्मपुराण में कहा है कि –
मैं मोहरूपी अन्धकार से परिपूर्ण संसारनाशक गढ्ढे में सदा से गिरा हुआ हूं और दीन हूं, भय से अत्यन्त व्याकुल हूं । आप मेरे लिये नौका बनाकर मुझे उस गढ्ढे से निकाल कर आपकी शरण में लीजिये ।
(क्रमशः)

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