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*भावै विपति देहु दुख संकट,*
*भावै संपति सुख शरीर ।*
*भावै घर वन राव रंक कर,*
*भावै सागर तीर, माधव ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३५४)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३५ विनय । धुमाली ताल
माधव करो क्यों न सहाय,
तुम बिन कोऊ और नाहीं, कहूं तासौं जाय ॥टेक॥
काम वैरी क्रोध वैरी, मोह वैरी मांहिं ।
पंच मारैं सो न हारैं, क्यों हरि आओ नांहिं ॥१॥
काय वैरी माया वैरी, प्रकृति१ भरपूर२ ।
दीन की फरियाद३ सुनिए, करो ये सब दूर ॥२॥
पिशुन४ सारे मैं न मारे, मोहि मारे जांहिं ।
बहुरि तुम कहा आय करी हो, जन५ रज्जब जब नाँहिं ॥३॥१६॥
कामादि से मुक्त होने के लिए प्रभु से प्रार्थना कर रहे हैं -
✦ माधव ! मेरी सहायता क्यों नहीं करते ? मेरा सहायक तो आपके बिना अन्य कोइ है ही नहीं, जो उसे जा कर सहायता करने के लिए कहूं ।
✦ मेरे हृदय में काम, क्रोध और मोह रूप वैरी घुसे हुए हैं तथा पंच ज्ञानेन्द्रीय भी मुझे मार रही हैं, वे मुझको मारने से थकती भी नहीं हैं फिर भी हरे ! आप क्यों नहीं आते ?
✦ शरीर माया और दुर्स्वभाव१ पूरे२ शत्रु हैं । मुझ दीन की पुकार३ सुनकर इन सबको मेरे से दूर करें ।
✦ उक्त तथा अन्य भी दुष्ट४ गुणों को मैं नहीं मार सका हूँ, वे ही निरंतर मुझे मारते जा रहे हैं, जब मुझे मार देंगे मैं आपका दास५ जीवित नहीं रहूँगा, तब आकर क्या करेंगे ? अतः शीघ्र ही पधारें ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित केदार राग ८ समाप्तः ।
(क्रमशः)
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