रविवार, 2 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३१*

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*सारा सूरा नींद भर, सब कोई सोवै ।*
*दादू घायल दर्दवंद, जागै अरु रोवै ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३१ विरह व्यथा । पंजाबी त्रिताल
नाह१ बिन निशि विघ्न की खानि,
विरहनी बहुत भांति दु:ख पाये, सकल सुखों की हानि ॥टेक॥
शशि नहिं शंक२ कलंकी जातैं, काहूं की नहिं कानि३ ।
विरह भोज४ में भामिनी बैठी, ध्यौं५ नावत६ है आनि ॥१॥
तारे तरुण७ तपत शिर ऊपर, शशि बंधू८ पहचान ।
देखो दुख दायक दश हूं दिशि, नौलख वैरी जान ॥२॥
महल मसान सेज ह्वै सिंहनि, मारत मीच समान ।
रज्जब राम बिना रजनी दुख, केतकि९ कहूं बखान ॥३॥१२॥
१३१-१३३ मे विरह व्यथा दिखा रहे है -
✦ प्रभु१ के बिना रात्रि विघ्नों की खानि बन रही है । विरहनी बहुत प्रकार से दु:ख पा रही है, सभी सुखों की हानि हो रही है।
✦ यह चन्द्रमा भी कलंकी होने से कुछ भी भय२ नहीं मानता, न किसी की लज्जा३ ही करता है । मेरे ऊपर अपनी किरणें डालकर मुझे व्यथित कर रहा है । यह नारी बैठी हुई विरह रूप भोजन४ में घृत५ लाकर डाल६ रही है अर्थात जैसे भोजन में घृत डालने से वह भारी हो जाता है वैसे ही पतियुक्त नारी को देखने से वियोग व्यथा बढती है और प्रभु प्राप्त संत को देखकर साधक की व्यथा बढती है ।
✦ ये नूतन७ तारे शिर पर तप रहे हैं और मुझे चन्द्रमा के भाई विष के समान मरने वाले जान पड़ते हैं । देखो ये नौ लाख तारे दशों दिशाओं में फैले हुये हैं और दु:ख दाता होने से मुझे वैरी ज्ञात हो रहे हैं ।
✦ महल श्मशान रूप दिख रहा है । शय्या सिंहनि सी होकर मृत्यु के समान मार रही है । राम के बिना जो रात्रि में दु:ख हो रहे हैं उनको व्याख्यान करके कितना९ कहूं, अर्थात बहुत हैं कहे नहीं जा सकते ।
(क्रमशः)

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