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*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।*
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३४ ब्रह्म दर्शन प्रेरणा । चौताल
सखि सुंदर सहज रूप, देखि ले जगत भूप ।
प्राणिन में प्राण पति, त्रिकुटी के तीरा ॥टेक॥
बैठी क्यों नवल१ नारि, कही सो श्रवण धारि ।
निकट नाह२ निहारि, नैननतैं नीरा ॥१॥
विधि सौं विलोकि३ वाम४, सेय ले साजन५ राम ।
पूरण सकल काम, थापन६ सो थीरा७ ॥२॥
उठि तू आतुर धाय, पूजिले परम पाय ।
अंतरि अनन्य भाय, पीरन८ को पीरा९ ॥३॥
विमल ब्रह्म अंग१०, सर्वंगी सर्व संग ।
शोधिले आतम दंग११, हिरदै को हीरा ॥४॥
रज्जब भामिनी१२ भाग, आदि को अंकूर जाग ।
देहि जो सेज सुहाग, मीरन१३ को मीरा१४ ॥५॥१५॥
साधक रूप सखी को ब्रह्म को साक्षात्कारार्थ प्रेरणा कर रहे हैं -
✦ अरि साधक सखि ! सहज सुंदरस्वरूप जगतपति का साक्षात्कार ले, वे प्राणपति प्राणियों के बीच में त्रिकुटी के ध्यान रूप तीर पर मिलते हैं अर्थात आज्ञा चक्र में ध्यान करने से उनका दर्शन होता है ।
✦ अरि ! साधन मार्ग में नवीन१ साधक-सखि ! आलस्य में क्यों बैठी है ? जो तुझे कहा है, उसे श्रवणों द्वारा हृदय में धारण करके नेत्रों से वियोग व्यथा का अश्रु जल बहाते हुये उन प्रभु२ को समीप ही देख ।
✦ साधक-सुंदरी४ ! उक्त विधि से उन प्रियतम५ राम को देखकर३ उनकी सेवा करले । वे सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं, स्थिर७ रूप से स्थापन६ करने वाले हैं ।
✦ तू उठकर शीघ्रता से साधन से साधन मार्ग में दौड़ कर अर्थात साधन करके उनके श्रेष्ठ चरणों की पूजा कर ले । अनन्य भाव द्वारा भीतर ही प्राप्त होते हैं, वे सिद्धों८ के भी सिद्ध९ हैं ।
✦ जो अविद्या मल से रहित, सर्व विश्व जिनका अंग है, जो सबके साथ रहते हैं, उन प्यारे१० ब्रह्म को विचार द्वारा खोज ले । वह आश्चर्य११ रूप ब्रह्म संतात्माओं के हृदय का हीरा है अर्थात संतों को अति प्रिय है ।
✦ साधक-सुन्दरी१२ ! तेरे भाग्य से ही तेरे हृदय में सबके आदि स्वरूप ब्रह्म के दर्शन की इच्छा रूप अंकुर उत्पन्न हुआ है, तो जो सरदारों१३ के सरदार१४ प्रभु हैं, वे तेरी हृदय शय्या पर पधार करके तुझे सुहाग सुख प्रदान करेंगे ।
(क्रमशः)
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