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*आज्ञा मांहैं बैसै ऊठै, आज्ञा आवै जाइ ।*
*आज्ञा मांहैं लेवै देवै, आज्ञा पहरै खाइ ॥*
*आज्ञा मांही बाहर भीतर, आज्ञा रहै समाइ ।*
*आज्ञा मांही तन मन राखै, दादू रहै ल्यौ लाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*गजगोपालदासजी*
*भक्त भयो गज संतन सेवत,*
*देख प्रणाम करै जन नीके ।*
*ल्यावत गोन उठाय रु वारण१,*
*नायक२ जाय पुकारत पीके३ ॥*
*आवत उत्सव सीत हि पावत,*
*आप४ द्विपै५ कहि निंद कही के ।*
*छोड़ दिई गति भक्तन से मति,*
*संग समूह रहे सुख जीके ॥३६२॥*
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रसिक मुरारि जी ने दुष्ट स्वभाव राजा को चमत्कार दिखाकर ठीक किया । गुरु-स्थान को पहले से भी अधिक ग्राम दिलवाये और मत्त गजराज को शिष्य बना कर अपने साथ कर लिया । वह गज अब भक्त बन गया था। अच्छे संतों को देखकर प्रणाम करता था । संतों की सेवा करता था ।
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वह हाथी१ बणजारों के(व्यापारियों के) यहाँ से आटा, दाल, चावल आदि खाने की वस्तुओं की गोन(बैलों पर लादने की बोरी) उठा लाता था । तब बणजारे२ गज के गुरु स्थान के३ ऊपर आकर पुकारते थे ।
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उस हाथी का नियम था कि संतों के उत्सव में आता था और संतों की सीत(उच्छिष्ट) प्रसाद ही पाता था । जब भंडारे में हाथी५ आया तब उसको रसिक मुरारि४ जी ने कहा- "बणजारों की गोन उनकी इच्छा के बिना ही उठा लाना निन्दा के योग्य कार्य है । आगे अब किसी की गोन नहीं लाना ।"
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गुरुजी की आज्ञा मान कर गोपालदास गज ने वह गोन लाने की रीति छोड़ दी । फिर बणजारों ने अपने आप ही सीधा देने का नियम बना लिया था । हाथी की बुद्धि में संतों के प्रति प्रीति बहुत ही बढ़ गई थी । सन्तों का समूह(जमात) गोपालदास हाथी के संग रहने लगा था । गज गोपालदास जी महन्त की जमात प्रसिद्ध हो गई थी । आप सन्तों को सब प्रकार का सुख देते थे तथा अन्य जीवों के लिये भी सुख का कार्य करते थे ।
(क्रमशः)
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