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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३७२)*
*राग बसंत ॥२४॥**(गायन समय प्रभात ३ से ६ तथा बसंत ऋतु)*
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*३७२. थकित निश्चल । मदन ताल*
*मतवाले पँचूं प्रेम पूर, निमष न इत उत जाहिं दूर ॥टेक॥*
*हरि रस माते दया दीन, राम रमत ह्वै रहे लीन ।*
*उलट अपूठे भये थीर, अमृत धारा पीवहिं नीर ॥१॥*
*सहज समाधि तज विकार, अविनाशी रस पीवहिं सार ।*
*थकित भये मिल महल मांहिं, मनसा वाचा आन नांहिं ॥२॥*
*मन मतवाला राम रंग, मिल आसण बैठे एक संग ।*
*सुस्थिर दादू एकै अंग, प्राणनाथ तहँ परमानन्द ॥३॥*
*इति राग बसंत समाप्त ॥२३॥*
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मेरी विशुद्धबुद्धि और पांचों ज्ञानेन्द्रियें प्रभु के प्रेमरस में डूबी हुई हैं । इसलिये निमेषमात्र भी ये इन्द्रियें श्रीहरि को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाती हैं और मैं दीनभाव से संपन्न होकर हरिरस में डूबा हुआ भक्ति के द्वारा श्रीराम में रमण करता हुआ उसी में लीन रहता हूँ । मेरी इन्द्रियें और मन विषयों से हटकर संसार से विमुख होकर भगवान् के स्वरूप में स्थित हैं ।
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समाधि में तालु प्रदेश से जो अमृत की धारा बहती हैं । उसको मैं जल की तरह पी रहा हूँ । सारे विषयविकारों को त्यागकर सहज समाधि में विश्व के सारभूत ब्रह्मानन्द रस का पान करता हूँ ।
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प्रभु का साक्षात्कार होने के बाद मेरा मन विषयों को देखकर कभी चंचल नहीं होता । मैं सत्य कहता हूँ कि मन वचन कर्म से मुझे हरि में सिवा कुछ भी प्रिय नहीं लगता । मेरा मन प्रभु प्रेम में डूबा हुआ इन्द्रियों सहित ब्रह्म में निष्ठ रहता हैं । इस तरह मैं प्राणनाथ परमानन्दस्वरूप अद्वैत ब्रह्म के रूप में स्थित हूँ ।
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अध्यात्मउपनिषद् में –
इस समाधि को योगशास्त्र के वेत्ता धर्म मेध नाम से कहते हैं क्यों कि इसमें अमृत(आनन्द) की हजारों धाराओं की वर्षा होती रहती हैं ।
(क्रमशः)

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