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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*जने जने की राम की, घर घर की नारी ।*
*पतिव्रता नहीं पीव की, सो माथै मारी ॥*
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*लौकिक माया कौ अंग ॥*
अपणी माया पार की, पलक एक मैं होइ ।
अगनि दहै तसकर मुसै, देखत बिनसै सोइ ॥१॥
संतों की वाणियों में माया का एक अंग ही प्रायः करके मिलता है । बषनांजी की वाणी में दैवी माया तथा लौकिक माया के दो अंग मिलते हैं जो माया नाम के तत्त्व की मीमांसा करने में बड़े ही सहायक हैं ।
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जब हम वेदांत के ग्रंथों को देखते हैं तब वहाँ माया का तात्त्विक विवेचन तो मिलता है किन्तु उसके स्थूल लिंगों का विवेचन नहीं मिलता । इसके विपरीत जब कबीरादि संतों की वाणियों को पढ़ते हैं तो वहाँ माया के स्थूल रूप = काया, धन, सम्पत्ति नारी आदि के तो विवेचन मिलते हैं किन्तु तात्त्विक रूप के विवरण नहीं मिलते ।
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बषनांजी ने दैवी माया के अंग में तात्त्विक माया का विवेचन किया है तथा लौकिक माया के अंग में धन, कनक, कामिनी, मान, प्रतिष्ठा आदि का वर्णन किया है । पाठक आगे इस तत्त्व पर विवेचन पढ़ें ।
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स्थूल माया कनकादि जिसे जीव अपनी-अपनी कहता है एक पलक में ही दूसरे की हो जाती है । जैसे ही चौर इसे चुराता है, चौर की हो जाती है । इसी प्रकार जैसे ही अग्नि इसे जलाती है, वैसे ही यह भस्म होकर अपनी से पराई हो जाती है । यह देखते-देखते ही विनष्ट हो जाती है । जो अपनी है नहीं, अपनी रहती नहीं उससे क्यों मोह बांधा जाये । इससे अनासक्त रहना ही विधेय है ॥१॥
(क्रमशः)

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