गुरुवार, 28 सितंबर 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १९५*

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*दादू निंदक बपुरा जनि मरै, पर उपकारी सोइ ।*
*हम को करता ऊजला, आपण मैला होइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९-१२)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१९५ निन्दक । त्रिताल
निन्दक नरक निवारत१ नर को,
कहै अनिति अधिक अध२ लागै, पातक उतरत पर को ॥टेक॥
ज्यों सुरही३ सुत को तन चाटत, मुख मल लेत न धरको४ ।
यूं निंदक माता मत धारै, काज करत घर घर को ॥१॥
ज्यों शूर सत सूग-बिहूने५, होत सुधार शहर को ।
त्यों रज्जब निंदक करि निर्मल, धोवत कारो छिरको६ ॥२॥३॥
निंदक का परिचय दे रहे हैं -
✦ निंदक नर को नरक से हटाता१ है । वह अनीति की बात करता है । इससे उसको तो अधिक पाप२ लगता है और जिसकी निंदा करता है, उस दूसरे मनुष्य का पाप उतारता है ।
✦ जैसे गाय३ अपने बच्चे का शरीर चाटती है, उसका मैल मुख में लेते हुये कोई शंका४ नहीं करती, ऐसे ही निंदक भी माता का मत धारण करता है और निंदा करके प्रति घर के मनुष्यों का पाप निवृत रूप कार्य करता है ।
✦ सत्य है जैसे ग्लानि५-रहित शूकर से शहर का सुधार होता है, वैसे ही निंदक से प्राणी निर्मल होते हैं वह प्राणी के पाप रूप के छींटे६ को धो डालता है ।
(क्रमशः)

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