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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*माया मैली गुणमयी, धर धर उज्ज्वल नांम ।*
*दादू मोहे सबनि को, सुर नर सब ही ठांम ॥*
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चिलकै सबै संघारिया, माया मेल्हा बांधि ।
पैसि छानि कै छेकलै, घोड़ा मार्या चांदि ॥२॥
जिन्होंने माया को बांधकर अपने पास रख रखा है अर्थात् व्यष्टि = थोड़ी सी माया में आसक्ति कर रखी है, उन सभी को इस व्यष्टि माया के चिलकै = प्रतिबिम्ब = छोटे से भाग ने ही बर्बाद कर दिया है । समष्टि = सम्पूर्ण माया किसी के भी पास होने संभव नहीं है । समष्टि माया में से ही किसी के पास अधिक तथा किसी के पास कम होती है जो व्यष्टि = सीमित माया कहलाती है । बषनांजी के अनुसार व्यष्टि माया का भी थोड़ा सा ही अंश जीव को बर्बाद करने के लिये पर्याप्त है जैसे छान की छत वाली घुड़शाल में व्रण = घावयुक्त घोड़े को चन्द्रमा की थोड़ी सी ही शीतल किरणें भी जहर उत्पन्न करने का कारण बनकर मृत्यु का कारण बन जाती हैं ॥२॥ पैसि = प्रविष्ट होकर । छानि के छेकलै = छान के छिद्र में ॥
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*सकाम सब्द कौ अंग ॥*
बेद बिड़ौ बषनां हम जाण्यौं, रस सिंगार दह डार्या ।
थोहा कै दूध माछला माता ज्याँह पिया ते मार्या ॥३॥
बषनांजी कहते हैं, हमने यह भलीभाँति जान लिया है कि वेद में प्रतिपादित सिद्धांत बिड़ौ-गहन जंगल के समान हैं जिनमें भटक जाने पर गन्तव्य पर पहुँचना सर्वथा दुर्लभ है ।
“यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवंदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥”
गीता २/४२॥
“रामचरण यूँ बेद में, करमकांड अरु नाम ।
करमकांड संसार ले, साधू सुमरै राम ।”
श्रृंगाररसात्मक काव्य गंभीर = गहरा दाह = सरोवर है जिसमें एक बार डूब जाने पर तैरकर निकल आना अत्यन्त दुष्कर है । जिन मछलियों ने अपने जीवन-जल को त्यागकर थूहर के दूध का पान किया है, वे निश्चय ही यम के गाल में पहुँच जाती हैं । इसी प्रकार जो जीव सांसारिक=विषय=भोगों में, अखंडानंदस्वरूप निजात्मा के चिंतन-मनन को त्यागकर निमग्न हो जाते हैं वे निश्चय ही काल के ग्रास बनते हैं । अथवा जो जीव निष्कामभाव को छोड़कर संसार में वेदानुसार सकामभाव से कर्मों को करते हैं, वे कर्मबन्धन में बंधकर पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र में घूमते रहते हैं ॥३॥
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*कुलाभिमान संग दोष कौ अंग ॥*
को अपणैं को पारकै, रुल्या मुवा इहिं भारि ।
बषनां हरि सुमर्यौ नहीं, सिर की पोट उतारि ॥४॥
कोई अपनी माया के भार से और कोई दूसरे की माया के भार से रुल्या = बर्बाद तथा मुवा = मृत्यु को प्राप्त हुए हैं । बषनांजी इसका कारण बताते हुए कहते हैं, इन बर्बादी तथा मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्यों ने माया की पोटाली को शिर से उतार कर कभी भी हरिस्मरण नहीं किया है । माया से, झूठे कुलाभिमान से, दुःसंग से, दुराचारों से बचने का एकमात्र और एकमात्र उपाय हरिस्मरण ही है ॥४॥
इति लौकिक माया कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ५४॥साषी ८५॥
(क्रमशः)

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