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*सोइ जन साचे सो सती, सोइ साधक सुजान ।*
*सोइ ज्ञानी सोई पंडिता, जे राते भगवान ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सांच का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*आय वृन्दावन माधुर में मन,*
*शब्द कह्यो सुन सो रस रासै ।*
*जा दिन में उचर्यौ मुख तैं,*
*शत योजन जात बढी जग प्यासै ॥*
*सूर१ द्विजै२ द्विज३ म्हैल४ चहल५ हु,*
*चैल पहैल जुगल्ल प्रकासै ।*
*मोहन जू शिर इष्ट महाप्रभु,*
*आश्चर्य नांहिं दया अनयासै ॥३६९॥*
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आप बादशाह अकबर की आज्ञा द्वारा जेल से निकल कर वृन्दावन आ गये और श्रीराधा की युगल माधुर्य भक्ति में अपने मन को लगाया । उसके पश्चात् जो जो पद आपने रचे सो कृष्ण सुनने में रस की राशि ही प्रतीत होते थे ।
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जिस दिन मुख से पद उच्चारण करते थे उसी दिन वह चार सौ कोस चला जाता था । उस पद का अर्थ, काव्य के रसभेद सुनते ही जगत के लोगों की उसके संबन्धी अभिलाषा बढ़ जाती थी ।
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सूरध्वज१ ब्राह्मण२ थे और भक्ति दीक्षा रूप दूसरा जन्म३ पाकर अपने प्रभु के मन्दिर५ की या प्रभु रूप महल४ की सेवा प्राप्त करके अति आनन्दित हुए थे । उस चहल पहल रूप आनन्द के द्वारा आपके हृदय में श्रीराधाकृष्ण रूप युगल चन्द्रमा का ज्ञान रूप प्रकाश आ गया था ।
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सो ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं हुई थी; क्योंकि आपके इष्टदेव श्रीमदनमोहनजी शिर पर थे और आचार्य श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु थे । इन दोनों की दया से उक्त प्रकाश तो अनायास होना ही था ।
(क्रमशः)

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