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*भेष न रीझे मेरा निज भर्तार,*
*तातैं कीजै प्रीति विचार ॥टेक॥*
*पीव पहचानें आन नहिं कोई,*
*दादू सोई सुहागिनी होई ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. ६१)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*६. सदनाजी की पद्य टीका*
*इन्दव-*
*है सदना क कुसाई बनी अति,*
*हमे कसोटि भली कस१ आई ।*
*जीव हतै न करें कुल चारहि,*
*बेचत मांस हरी मति लाई ॥*
*शालगराम न जानत तोलत,*
*संत भरै दृग सेव कराई ।*
*रात कहा धरि आव वहीं मम,*
*गान सुनों उर रीझ सचाई ॥३७०॥*
सदनाजी जाति के कसाई थे, तो भी उनकी भक्ति रूप बात बहुत अच्छी बन गई थी । जैसे कसोटी से रगड़ने पर शुद्ध सोने की लकीर अच्छी ही आती है, वैसे ही इन शुद्ध भक्त में दुःख पड़ने पर यह भी परीक्षा१ में पूरे ही उतरे थे । कसाई कुल में उत्पन्न होने पर भी जीवों को नहीं मारते थे । अपनी कुलपरंपरा का आचरण समझ कर, दूसरे कसाइयों से मांस लाकर बेचा करते थे ।
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पूर्व संस्कारों के वश से स्वाभाविक ही आप की बुद्धि हरि में लग गई थी । प्रेमपूर्वक हरि नाम स्मरण करते रहते थे । दैवयोग से इनके शालग्राम हाथ लग गये थे । बिना जाने उन्हीं से मांस तोल तोल कर बेचा करते थे । एक दिन इनकी दुकान के पास से एक संत जा रहे थे । उनकी दृष्टि शालग्रामजी पर पड़ गई । उनने नेत्रों में आंसू भरकर इनको कहा- 'ये तो शालग्रामजी हैं इनसे मांस मत तोला करो । लाओ इसको दो हम इनकी सेवा पूजा करेंगे ।' सदनाजी ने दे दिया ।
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संत ले आये और पञ्चामृत आदिक संस्कार करके पूजा करने लगे किन्तु उनकी पूजा प्रभु को प्रिय नहीं लगी । रात्रि के समय स्वप्न में संत की आज्ञा दी- "हमको उसी सदना के यहाँ पहुँचा दो । वह हमारा नाम और गुण सप्रेम गाता है, सो हम सुनते हैं और उसकी हृदय की सच्चाई पर हम अति प्रसन्न हैं" ॥
(क्रमशः)

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