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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*किया कृत मेटै नहीं, गुण ही मांहि समाइ ।*
*दादू बधै अनन्त धन, कबहूँ कदे न जाइ ॥*
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*साध पूजा महात्म कौ अंग ॥*
पइसौ तंदुल दोवटी, खेत धनां कौ जोय ।
बषनां पूज्या साध तैं, लाभ घणौं ही होइ ॥१॥
इस साखी में चार भक्तों द्वारा भगवान् व भगवान् के भक्तों की सेवा करने और सेवा के द्वारा प्राप्त लाभ का वर्णन है ।
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दादूजी ने एक पैसे से पान लाकर बुड्ढन भगवान् को भेंट किया । सुदामा ने चावल श्रीकृष्ण द्वारकाधीश को भेंट किये । कबीर ने दोवटी = रेजी भगवत्स्वरूप संत को भेंट की । धनांजी ने खेत में बोये जाने वाले बीजों को खेत में न बोकर संतों को खिला दिया ।
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इन सभी ने साधु-संतों तथा भगवान् की पूजा अभ्यर्थना की जिसके परिणामस्वरूप इन्हें अनंत लाभ हुआ । अतः सिद्धांत रूप में कहा जा सकता है कि साधु संतों की सेवा-अभ्यर्थना करने के अनन्त लाभ होते हैं ।
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दादूजी महाराज को आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ । सुदामा को श्रीकृष्ण के समान धन, वैभव, संपदा प्राप्त हुई । कबीरजी को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ और धनांजी को बिना बोये ही खेत से फसल प्राप्त हो गई ॥१॥
(क्रमशः)
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