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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३७५)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३७५. उत्तम स्मरण । मदन ताल*
*ऐसी सुरति राम ल्यौ लाइ,*
*हरि हृदय जनि बिसरि जाइ ॥टेक॥*
*छिन छिन मात संभारै पूत,*
*बिंद राखै जोगी अवधूत ।*
*त्रिया कुरूप रूप कों रटै,*
*नटणी निरख बांस बरत चढ़ै ॥१॥*
*कच्छप दृष्टि धरै धियांन,*
*चातक नीर प्रेम की बान ।*
*कुंजी कुरलि संभालै सोइ,*
*भृंगी ध्यान कीट को होइ ॥२॥*
*श्रवणों शब्द ज्यूं सुनै कुरंग,*
*ज्योति पतंग न मोड़ै अंग ।*
*जल बिन मीन तलफि ज्यों मरै,*
*दादू सेवक ऐसै करै ॥३॥*
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अपने मन की वृत्ति को परमात्मा के ध्यान में ऐसी लगानी चाहिये कि विषयों के स्फुरित होने पर भी मन की वृत्ति विषयों में न जा सके और कभी भी हरि के स्मरण को न छोड़ सके । जैसे माता अपने बच्चे को प्रतिक्षण याद करती रहती हैं और घर के कार्यों में व्यासक्त होने पर भी उसको नहीं भूलती ।
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जैसे योगी प्रतिक्षण संयम के द्वारा अपने वीर्य बिन्दु की रक्षा का ध्यान रखता है । जैसे कुरुपा नारी सुन्दर रूप का स्मरण करती रहती हैं जैसे रस्सी पर चढ़ी हुई नटणी पतन के भय से उस पर चलती हुई रस्सी का ध्यान नहीं भूलती । जैसे कच्छपी अपने अण्डों को नेत्र से देखती रहती हैं । जैसे चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र के जल की बूंद से प्रेम करता हैं ।
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कुंजनी जैसे शब्द करती हुई अपने अण्डों का ध्यान करती हैं । जैसे कीड़ा भृंगी का ध्यान करता हुआ भृंग बन जाता हैं उसी शरीर में रहता हुआ । जैसे मृग नाद को सुनता हुआ प्रेम से अपने प्राण त्याग देता हैं । जैसे पतंग अग्नि में पड़कर शरीर जला देता हैं । जैसे मछली जल के बिना मर जाती हैं । इसी प्रकार भगवान् का भक्त भी प्रेम से भगवान् को भजता हैं । ऐसा स्मरण ही सर्वोत्तम स्मरण कहलाता हैं ।
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श्रीमद्भागवत में –
यदि प्राणी स्नेह द्वेष या भय से भी जान-बूझकर एकाग्रता से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का रूप प्राप्त हो जाता हैं । हे राजन् ! जैसे भृंगी एक कीड़े को पकड़ कर दीवाल पर अपने रहने के स्थान पर बन्द कर देती हैं, और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर को बिना त्यागे ही भृंगी के स्वरूप को प्राप्त हो जाता हैं । इसी तरह मनुष्य को अन्य का चिन्तन छोड़कर परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये ।
(क्रमशः)
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