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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९-१२)
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१९३ भक्त वत्सलता । त्रिताल
तुम बिन तुम सी कौन करै,
और दान दत१ वैली२ वोरा३, या४ परि नांहि परै ॥टेक॥
कलि कुल हीन निकाजल५ आतम, सो प्रभु आप वरै६ ।
यहु अधिकार अपार अमित अति, सुर नर पाय७ परै ॥१॥
पाप प्रचंड प्राणि में पहले, सो हरि सफल हरैं ।
महा मलिन उज्वल करि आछो, अविगति८ अंक९ भरै१० ॥२॥
नर नारायण होत नाम बल, सुमिरत एक करै ।
रज्जब कहा कहै यहु महिमा, सुत पितु कंध धरै ॥३॥१॥
प्रभु की भक्त वत्सलता को प्रकट कर रहे हैं -
✦ प्रभो ! आपके बिना आप सी कृपा कौन कर सकता है ? और जितने भी दान दिये१ हुये होते हैं । उनका फल तो संसार के इस२ ओर३ ही रखता है । इस४ आपकी कृपा से श्रेष्ठ और संसार से पार करने वाला कोई नहीं है ।
✦ इस कलयुग में जो हीन कुल और निकम्मा५ जीवात्मा होता है भक्ति करने से उसे भी आप स्वीकार६ करते हैं । यह आपका स्वीकार करना भक्त के अधिकार को अति अमित और अपार कर देता है, नर और देवतादि भी उसके चरणों७ में पड़ते हैं ।
✦ प्राणी में पहले प्रचंड पाप होते हैं, उन सबको हरि नष्ट कर देते हैं । महा मलिन प्राणी को भी उज्जवल और अच्छा बना कर मन इन्द्रियों के अविषय परब्रह्म८ उसे हृदय९ के लगाते हैं१० ।
✦ प्रभु नाम स्मरण के बल से नर नारायण हो जाता है । इस प्रकार स्मरण करने वाले को प्रभु अपने में मिलाकर एक कर लेते हैं । मैं उनकी भक्त वत्सलता की महिमा क्या कहूं, यह महिमा तो ऐसी है कि - जैसे पिता पुत्र को अपने कंधे रखता है, वैसे ही भगवान् अपने भक्तों को रखते हैं ।
(क्रमशः)
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