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*दादू साचा साहिब सेविये, साची सेवा होइ ।*
*साचा दर्शन पाइये, साचा सेवक सोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सांच का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*आय दिये अपराध कर्यो हम,*
*सेव करी हरि को नहिं भाई ।*
*रीझ रहे तुम पै सु करो मन,*
*नैन भरे सुन सुद्धि१ गमाई ॥*
*धारि लिये उर छोड़ दियो सब,*
*श्री जगनाथ चलें उपजाई ।*
*संघ चल्यो इक संग भये जन,*
*देखि सुगात२ सु दूरि रहाई ॥३७१॥*
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प्रभु की आज्ञा सुन, शालग्रामजी को लेकर संतजी सदनाजी के पास आये और स्वप्न में बोले—“तुम्हारे यहाँ से शालग्रामजी को ले जाना रूप महान् अपराध मैने किया है । मैंने विधि विधान से अभिषेक प्रतिष्ठा करके सेवा-पूजा की किन्तु प्रभु को प्यारी नहीं लगी ।
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ये तो तुम्हारे ऊपर ही प्रसन्न हो रहे हैं । मुझे स्वप्न में आज्ञा दी है कि "हमको उसी के पास पहुँचा दो । सो लो अब तुम्हारा मन करे वैसे ही करो । चाहे मांस तोलो वा पूजा करो ।" ऐसा सुनते ही सदनाजी के नेत्रों में प्रेमाश्रु भर आये और वे अपने शरीर की सुध१ भी भूल गये ।
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फिर तो उन्होंने कुलाचार तथा घर को छोड़ दिया और एक प्रभु को ही हृदय में सदा के लिये धारण कर लिया और उसके मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि - जगन्नाथजी का दर्शन करने चलें । तब शालग्रामजी को लेकर पुरी को चल दिये ।
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और भी एक यात्री-यूथ जा रहा था । उसके साथ भक्त सदनाजी भी हो गये । किन्तु वे इनको कसाई२ जानकर इनसे अति दूर दूर रहते थे । उनके भाव जानकर, उन सब का संग छोड़ दिया । आप उनसे अलग होकर अकेले ही चलने लगे ॥
(क्रमशः)
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