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*सांसैं सांस संभालतां, इक दिन मिलि है आइ ।*
*सुमिरण पैंडा सहज का, सतगुरु दिया बताइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*नित्यगोपाल तथा नरेन्द्र । 'जपात् सिद्धि ।'*
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सन्ध्या के बाद चन्द्रोदय हुआ है । आज शनिवार, शरद पूर्णिमा का दूसरा दिन है । श्रीरामकृष्ण खड़े हुए समाधिमग्न हैं । नित्यगोपाल भी उनके पास भक्तिभाव से खड़े हैं ।
श्रीरामकृष्ण बैठे । नित्यगोपाल पैर दबा रहे हैं । कालीपद, देवेन्द्र आदि भक्त पास बैठे हुए हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (देवेन्द्र आदि से) - मेरे मन में यह भासित हो रहा है कि नित्यगोपाल - की ये अवस्थाएँ अब चली जायेगी । उसका सब मन सिमटकर मुझमें आ जायेगा - जो मेरे भीतर हैं, उनमें ।
"नरेन्द्र को देखते हो न, उसका सब मन सिमटकर मुझपर आ रहा है ।"
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भक्तों में बहुतेरे बिदा हो रहे हैं । श्रीरामकृष्ण खड़े हुए एक भक्त को जप की बातें बतला रहे हैं - "जप करने का अर्थ है निर्जन में चुपचाप उनका नाम लेना । एकाग्र होकर उनका नामजप करते रहने से उनके रूप के भी दर्शन होते हैं और उनसे साक्षात्कार भी होता है । जंजीर से बँधी लकड़ी गंगा में जैसे डुबायी हुई हो और जंजीर का दूसरा छोर तट पर बँधा हुआ हो ।
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जंजीर की एक एक कड़ी पकड़कर कुछ दूर बढ़कर, फिर पानी में डुबकी मारकर, उसी प्रकार और आगे बढ़ते हुए लोग लकड़ी को अवश्य ही छू सकते हैं । इसी तरह जप करते हुए मग्न हो जाने पर धीरे-धीरे ईश्वर के दर्शन होते हैं ।"
कालीपद (सहास्य, भक्तों से) - हमारे ये अच्छे ठाकुर हैं ! - जप, ध्यान, तपस्या, कुछ करना ही नहीं पड़ता !
इसी समय श्रीरामकृष्ण ने एकाएक कहा - "यहाँ (गले में) न जाने कैसा हो रहा है ।
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श्रीरामकृष्ण के गले में दर्द हो रहा है । देवेन्द्र ने कहा, "हम इस तरह की बातों में नहीं आनेवाले ।” देवेन्द्र का भाव यह है कि श्रीरामकृष्ण ने लोगों को धोखे में डालने के लिए रोग का आश्रय लिया है ।
भक्तगण बिदा हो गये । रात में कुछ बालक-भक्त बारी बारी से जागकर श्रीरामकृष्ण की सेवा करेंगे । आज रात को मास्टर भी यहीं रहेंगे ।
(क्रमशः)
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