बुधवार, 20 सितंबर 2023

*३९. बिनती कौ अंग ७३/७६*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*३९. बिनती कौ अंग ७३/७६*
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कहि जगजीवन रांमजी, जन जाचै१ सोइ पाइ ।
बिरह प्रेम बैराग हरि, भाव भगति गुन गाइ ॥७३॥
{१. जाचै=यच्या करै(मांगै)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जन याचना करते हैं वह आप अवश्य देते हैं । आप विरह प्रेम वैराग्य दीजिए हम भाव भक्ति से आपका गुणगान करें ।
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विपति हमारी देखि हरि, सतगुरु सनमुख चाहि ।
कहिं जगजीवन महरि करि, समरथ लेहु संबाहि ॥७४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारी विपत्ति देखकर हे सत्गुरु आप हमें दर्शन दीजिए आफ समर्थ हैं आप हमें सम्भाल लें ।
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कहि जगजीवन रांमजी, सबल साल२ तन एह ।
भाव भगति हरि नांम मंहि, रहै न निहचल देह ॥७५॥
{२. साल=वेदना(पीड़ा)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु एक ही दुख है यह शरीर भाव भक्ति और आपके नाम में दृढ निश्चयी नहीं होता है ।
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हरि थैं बिमुख सरीर सों, कहौ प्रभु कोनै३ कांम ।
कहि जगजीवन मिलि रहै, सो मति दीजै रांम ॥७६॥
(३. कोनै=क्या)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो देह प्रभु से विमुख है उसका संसार में होने से क्या काम है है प्रभु ऐसी बुद्धि दीजिये कि आपसे मिल पायें ।
(क्रमशः)

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