बुधवार, 13 सितंबर 2023

*३९. बिनती कौ अंग ६१/६४*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*३९. बिनती कौ अंग ६१/६४*
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राजिक१ रिजक२ फराक३ कर, नाउं बिस्त४ मंहि राखि ।
कहि जगजीवन तूं ही तूं, साहिब ए सुन साखि ॥६१॥
(१. राजिक=जीविका देने वाला) (२. रिजक=जीविका) (३. फराक=चिन्तामुक्त)   {४. बिस्त=बहिश्त(स्वर्ग)}  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे दाता आप ही पालनहार हैं आप नाम दान जो स्वर्ग सा है देकर हमें चिंता मुक्त रखें । आप ही हमारे सर्वस्व हैं हम यह बात सत्य पूर्वक कहते हैं ।
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अंग मंहि अंग समाहि ल्यौ, करि हरि सांचा हेत ।
कहि जगजीवन रांमजी, तन मन प्रांण सहेत ॥६२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु आप हमें अपने में ही मिला लिजिये । आपका सच्चा स्नेह प्रदान करें हम तन मन प्राण सभी आपको अर्पण करते हैं ।
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सेवग संग सेवा करै, अनेक जनम लगि साथ ।
कहि जगजीवन रांमजी, जन का गहिये हाथ ॥६३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सेवक समर्पण भाव से सेवा करे ऐसा होने में अनेक जन्म लग जाते हैं । अतः हे प्रभु आप हमारा हाथ पकड़ हमें सहारा दीजिये ।
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कहि जगजीवन रांमजी, अलख प्रगट रस पाइ ।
अंग सरीखा कीजिये, अनंत परसै आइ ॥६४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु आपसे हमें अलख आनंद मिल रहा है । आप हमें अपने जैसा कर दीजिये जिससे हमें भी अनंत ब्रह्म अपनाये ।
(क्रमशः) 

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