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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग कल्याण १७(संध्या ६ से ९ रात्रि)
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१९२ त्रिविध अंकुर । त्रिताल
तीन रूप आज्ञा अंकूर,
हरि मुख गुरुमुख मनमुख दूर ॥टेक॥
हरिमुख हिरदै हरि सौं लागे,
गुरुमुख गुरु संगति से जागै,
मन मुख मूढ महा निधि त्यागै ॥१॥
हरि मुख हिरदै हरि का वास,
गुरुमुख ज्ञान गुणे१ परकश,
मन मुख जीव जन्म का नाश ॥२॥
अंकुर हरि मुख है वर्ष२ कालू,
गुरुमुख आहि३ अंकूर उन्हालू४,
मन मुख होत महा मधि५ कालू ॥३॥
त्रिविध रूप अंकुर पिछाने,
हरि मुख गुरुमुख मनमुख बाने६,
जन रज्जब साधू सो जाने ॥४॥४॥
त्रिविध अंकुर का परिचय दे रहे हैं -
✦ शास्त्रादि के उपदेशरूप आज्ञा लता से तीन प्रकार से साधक रूप अंकुर उत्पन्न होते हैं - १ हरिमुख, २ गुरुमुख, ३ मनमुख । तीसरा मनमुख परमार्थ से दूर ही रहता है ।
✦ भजन द्वारा हरि के सन्मुख रहने वाले हरिमुख साधक का हृदय निरंतर हरी प्रेम में ही लगा रहता है । गुरु की आज्ञा में रहनेवाला गुरुमुख साधक गुरु की संगति करके मोह निद्रा से जग जाता है । मन के कहने में चलने वाला मनमुख मूर्ख होता है और ज्ञान भक्ति रूप महा निधि का त्याग करके विवावादि में प्रवृत होता है ।
✦ हरिमुख के हृदय में हरि का निवास रहता है । गुरुमुख ज्ञान का विचार१ करता है, इससे उसके हृदय में ब्रह्म प्रकाश प्रकट हो जाता है । मनमुख जीव तो अपने जन्म को व्यर्थ ही नाश कर डालता है ।
✦ हरिमुख साधक रूप अंकुर वर्षाकाल२ के समान है, जैसे वर्षाकाल में अंकुर की वृद्धि होती है, वैसे ही हरिमुख की वृद्धि होती है । गुरुमुख उष्णकाल४ के अंकुर के सामान५ है, जैसे उष्णकाल में अंकुर अपनी स्थिति में ही रहता है, बढता नहीं है, वैसे ही गुरुमुख साधक अपनी निष्ठा में ही स्थित रहता है, प्रपंच की और नहीं बढता । और मनमुख महान शीतकाल के मध्य५ के अंकुर के समान है । जैसे अतिशीत से अंकुर की स्थिति होती है वैसे ही मनमुख अकी होती है । वह परमार्थ से गिर ही जाता है ।
✦ ये हरिमुख, गुरुमुख, मनमुख, तीन प्रकार के अंकुर हमने पहचाने हैं । जो सच्चे संत होते हैं, ये इनको इनकी भावना वचन और भेष६ से जान जाते हैं ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित राग कल्याण १७ समाप्तः ।
(क्रमशः)
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