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*मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।*
*मन ही सौं मन मिल रह्या, दादू अनत न जाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग कल्याण १७(संध्या ६ से ९ रात्रि)
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१९१ मन को उपदेश । त्रिताल
काछिरे१ मन राम के आगै,
करि ले नृत्य निरंतर निश दिन,
और सकल संसार हि त्यागै ॥टेक॥
तन मन सकल सौंज२ शिर सहिता,
ता३ हू में विगता४ वैरागै ।
यूं मन लेय५ लाय उनमन६ से,
ज्यों चकोर चंद हित७ लागै ॥१॥
सब रस रहित रसिक रमि८ ता९ सौं,
ब्रह्म विचार विषय सन१० भागै ।
परवनि११ पान समान सुरति धरि,
चरण कमल ऐसे अनुरागै ॥२॥
ऐसे काछ१२ निरंजन आगै,
अंजन१३ नेह नींद सौ त्यागै१४ ।
जन रज्जब जगपति यूं परसे१५,
जाय मिले उस विछुटे बागै१६ ॥३॥३॥
मन को उपदेश कर रहे हैं -
✦ अरे मन ! उपरामता रूप स्वांग१ बनाकर, अन्य सब संसार को त्याग दे और राम के आगे अर्थात राम परायण होकर रात्रि दिन निरंतर राम का चन्तन रूप नृत्य कर ।
✦ शिर के सहित तन मन आदि सब सामग्री२ रूप शरीर से और उस३ शरीर में जो बीत४ गई है उन सब बातों से विरक्त हो और हे मन ! जैसे चकोर अपने नेत्र प्रेम७ पूर्व चन्द्रमा में लगाता है वैसे ही तू अपनी वृत्ति को समाधि६ में लेजाकर५ प्रभु के स्वरूप में लगा ।
✦ ब्रह्म विचार के द्वारा विषयों से१० दूर दौड़ और हे रसिक मन ! सब रसों से रहित होकर उस९ ब्रह्म में से ही रमण८ कर । जैसे कमलिनी११ पुष्प के पत्ते चन्द्रमा में अनुराग करते हैं, वैसे ही तू प्रेम पूर्वक प्रभु के चरण कमलों में अपनी वृत्ति रख ।
✦ माया१३ प्रेम और मोह निद्रा से अलग१४ होकर निरंजन राम के आगे ऐसा स्वांग१२ बना तभी तू उन विछुटे हुये स्नेही१६ प्रभु के पास जाकर उनसे मिल१५ सकेगा । जग पति प्रभु इस प्रकार ही मिलते हैं ।
(क्रमशः)

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