शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #३७६

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३७६)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३७६. स्मरण फल । एकताल*
*निर्गुण राम रहै ल्यौ लाइ, सहजैं सहज मिलै हरि जाइ ॥टेक॥*
*भौजल व्याधि लिपै नही कबहूँ, करम न कोई लागै आइ ।*
*तीनों ताप जरै नहिं जियरा, सो पद परसै सहज सुभाइ ॥१॥*
*जन्म जरा जोनी नहिं आवै, माया मोह न लागै ताहि ।*
*पाँचों पीड़ प्राण नहीं व्यापै, सकल सोधि सब इहै उपाइ ॥२॥*
*संकट संशय नरक न नैनहूँ, ताको कबहूँ काल न खाइ ।*
*कंप न काई भय भ्रम भागै, सब विधि ऐसी एक लगाइ ॥३॥*
*सहज समाधि गहो जे दिढ़ करि, जासौं लागै सोइ आइ ।*
*भृंगी होइ कीट की न्यांई, हरि जन दादू एक दिखाइ ॥४॥*
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निर्गुण निरंजन ब्रह्म में जिस साधक की वृत्ति स्थिर हो जाती है तो वह साधक वृत्तिद्वारा चिन्तन करते हुए ब्रह्मरूप हो जाता है । उस अवस्था में वह साधक सांसारिक दुःखों से दुःखी नहीं होता । दुष्कर्म में उसकी कभी प्रवृत्ति नहीं होती और कुत्सित कर्मों के पापरूप फल से लिप्त नहीं होता और न त्रिविध तापों से संतप्त होता, प्रत्युत वह जन्म जरा मरण आदि दुःखों से पार हो जाता है ।
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चारों तरफ दृष्टि फैलाकर देखने से यही प्रतीत होता है कि हरिभजन के अलावा सुख का दुसरा कोई साधन नहीं है किन्तु हरिभजन ही सर्वोत्तम सुख का साधन है । हरिभक्त का मन संशय और संकटों से ग्रस्त नहीं होता, क्योंकि वह तो आत्मरूप हो गया है । न उसके मल विक्षेप रूप पाप लगते । पता नहीं उसका भ्रम भय कहाँ दौड़कर चले जाते हैं ।
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अतः सब तरफ से अपने मन की वृत्ति को रोक कर परमात्मा में दृढ़ करनी चाहिये । जिससे सहज समाधि में उसको हरि का दर्शन हो जाय । जो व्यक्ति जिसको दृढ़भावना से भजता है वह उस भावना के अनुसार तद्रूप हो जाता है । जैसे कीड़ा भृंगी का ध्यान करते-करते भृंगी बन जाता है ऐसे ही हरि को भजने वाला भी हरिरूप हो जाता है । क्योंकि ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्मरूप हो जाता हैं ऐसा श्रुति कहती है ।
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महाभारत में ३७वें अश्वमेघ पर्व में कहा है कि –
जो स्थूल सूक्ष्मादि पूर्व पूर्व प्रपञ्चका बाध करके किसी भी प्रकार का संकल्प विकल्प न करके मौनभाव से संपूर्ण प्रपञ्च के लय स्थान परब्रह्म में समाहित है उसने संसार बन्धन को पार कर लिया । जो सबका सुह्रद है सब कुछ सह लेता है । मनोनिग्रह में अनुराग रखता हैं जितेन्द्रिय है तथा भय और क्रोध से रहित है वह मनस्वी पुरुष संसार से मुक्त हो जाता है ।
(क्रमशः)

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