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*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं करि चित्त ।*
*यह अनहद जहाँ थैं ऊपजै, खोजो तहाँ ही नित्त ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#राममूर्ति थे, तो वह अपनी छाती पर हाथी को खड़ा कर लेते थे। या मोटर को निकाल सकते थे। लेकिन उनकी छाती में कोई भी विशेषता न थी। जैसी सबकी छातियां हैं वैसी छाती ही थी। फर्क इतना ही था कि लंबे समय अभ्यास का फर्क था। फिर भी कितना ही अभ्यास हो, छाती पर हाथी को खड़ा करना तो प्राणायाम का एक प्रयोग है।
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हम सब रोज देखते हैं, लेकिन हमारे खयाल में नहीं आता। रबर का एक पहिया कितने ही वजन के ट्रक को खींचे लिये चला जाता है। वह रबर की ताकत नहीं है, रबर के भीतर हवा की ताकत है।
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तो राममूर्ति ने एक अभ्यास किया था कि छाती में हवा का इतना आयाम भर लिया जाए कि छाती टायर की तरह उपयोग में आ जाए। तो फिर हाथी खड़ा हो सकता है। वह हाथी छाती पर नहीं पड़ता उसका वजन, छाती के भीतर भरे हुए हवा के आयाम पर पड़ता है। इसलिए छाती को नुकसान नहीं पहुंचता। वह हवा का आयाम ही उसे झेल लेता है।
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उतना आयाम सबकी छाती में भर सकता है। हम सबकी छाती में छ: हजार छिद्र हैं, जिनमें हवा भर सकती है। लेकिन सामान्यत: डेढ़ हजार छिद्रों से ज्यादा हम सांस ही नहीं लेते कभी। हमारी सांस ऊपर ही जाती है और निकल जाती है। साढ़े चार हजार छिद्र तो जीवन भर कार्बन से ही भरे रहते हैं, उन तक हवा पहुंचती ही नहीं।
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योग कहता है कि अगर वे साढ़े चार हजार छिद्र भी प्राणवायु से भर जाएं तो आदमी की उम्र तीन गुनी हो जाएगी। क्योंकि उम्र और जीवन आक्सीजन का ही खेल है। यह क्षमता सबके भीतर है। लेकिन यह क्षमता प्रकट नहीं हो सकती। क्योंकि प्रकट होने के लिए तो अभ्यास चाहिए।
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मन की भी ऐसी ही क्षमताएं सबके भीतर हैं जो प्रकट नहीं हो पातीं। उनके लिए भी अभ्यास चाहिए। और इस अतींद्रिय आत्मा की अनंत क्षमताएं मनुष्य के भीतर हैं, उनका तो हमें पता ही नहीं। अभ्यास तो बहुत दूर, उनका हमें पता ही नहीं। उनका पता न होने से चमत्कार मालूम पड़ता है।
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अब अगर कोई कहे कि मैं बिना बुद्धि के सोच पाता हूं तो हम कैसे मानेंगे। कोई कहे कि मैं बिना आंख के देख पाता हूं तो कोई कैसे माने। कोई कहे कि मैं बिना कानों के सुन पाता हूं तो हम कैसे मानेंगे। नहीं मानेंगे उसका कारण यह नहीं है कि ये बातें मानने योग्य नहीं हैं, उसका कुल कारण इतना है--हमारे अनुभव से इनका कहीं भी कोई संबंध नहीं है।
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रूस में ऐसा हुआ। पिछले दस वर्ष पहले एक महिला ने उंगलियों से देखना शुरू किया। अचानक। उसकी आंख खराब हो गयी थी और उसे पढ़ने का शौक था। पढ़ना ही उसका एक मात्र शौक था और आंख अचानक खराब हो गयी, तो वह इतनी व्याकुल हो गयी, इतनी व्याकुल हो गयी--उसकी व्याकुलता हम समझ सकते हैं। उसके पास एक ही रुचि थी जीवन में--किताब। और आंखें खो गयीं तो उसका सारा जीवन खो गया।
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उसने आत्महत्या की दो बार कोशिश कि, बचा ली गयी। और उसका जिन किताबों से प्रेम था वह प्रेम इतना ज्यादा था कि फिर वह अंधी हो गयी तो किताबों को हाथ में रखकर उनपर हाथ ही फेरती रहती थी। अचानक एक दिन उसने पाया कि किताब का शीर्षक उसको दिखायी पड़ रहा है। वह घबड़ा गयी। हाथ फेरती थी किताब पर, उसे शीर्षक दिखायी पड़ रहा है, वह घबड़ा गयी। पन्ने उलटे, किताब उसके सामने धीरे-धीरे साफ होने लगी। उसने किताब पढ़ना शुरू कर दिया।
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लेकिन उंगली तो देख नहीं सकती, उंगली पर आंख नहीं है। तो उंगली तो सिर्फ बहाना है। सच बात है कि आदमी के भीतर जो क्षमता है, वह बिना आंख के देख सकती है। हम उसका प्रयोग भर नहीं किये। कभी थोड़ा प्रयोग करना शुरू करें और आप चकित हो जाएंगे। थोड़ा प्रयोग करना शुरू करें और चकित हो जाएंगे। कभी आंख बंद करके बैठ जाएं और किताब को खोल लें और सिर्फ इतना ही ध्यान करें कि कितने नंबर का पृष्ठ है।
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कोई फिकर नहीं है। दस-बीस बार भूल-चूक होगी, किये चले जाएं। कुछ-न-कुछ लोग आपमें से निकल आएंगे जिनको पृष्ठ का अंक दिखायी पड़ेगा। अगर एक अंक दिखायी पड़ सकता है, तो फिर कुछ भी दिखायी पड़ सकता है। फिर बात तो अभ्यास की है, फिर कोई अड़चन नहीं है बहुत। और जो मैं यह कह रहा हूं अब इस पर इतने प्रयोग हो गये हैं कि अब इस पर वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी भी संदेह नहीं कर पाता है।
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इंद्रियां हमारे सामान्य द्वार हैं जानने के। लेकिन अनिवार्य द्वार नहीं हैं। इंद्रियों के पार भी जाना और देखा जा सकता है। वह हमारी अनिवार्य क्षमता है।
महावीर के संबंध में कहा जाता है--जैन बड़ी मुश्किल में रहे हैं, समझाना बहुत कठिन है--कि महावीर बोले नहीं अपने शिष्यों से, वह चुप ही बैठे रहते थे और इस चुप्पी में ही बोलते थे। जैनों को बड़ी कठिनाई रही है। फिर वह यही कह सकते हैं कि तीर्थंकर का चमत्कार है, यह सबके बस की बात नहीं है। लेकिन नहीं, इसमें तीर्थंकर का कोई लेना-देना नहीं है। यह सब के बस की बात भी हो सकती है।
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जार्ज गुरजिएफ ने अपने शिष्यों के साथ आज से तीस साल पहले एक प्रयोग शुरू किया था, जिसमें वह तीन महीने तक पूर्ण मौन में रखने का आग्रह करता था। पूर्ण मौन। बहुत कठिन है। लेकिन तीन महीने अगर सतत कोई प्रयास करे, सतत चौबीस घंटे प्रयास करे, तो फलित हो जाता है। भीतर सब शून्य हो जाता है। और गुरजिएफ कहता था, जिस दिन तुम पूर्ण मौन हो जाते हो उस दिन मैं तुमसे बिना वाणी के बोलने लगता। और वह बोलता था अपने शिष्यों से।
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गुरजिएफ को मरे अभी थोड़े ही दिन हुए। उसके सैकड़ों शिष्य आज भी मौजूद हैं दुनिया में जिनसे वह बिना शब्दों के ही बोलता था। लेकिन तीन महीने उसको पूर्ण मौन से गुजरना होता था। जब पूर्ण मौन में तीन महीने आदमी गुजर जाता है तो उसके मन का सारा--का--सारा जो शोरगुल है, वह बंद हो जाता है। उस बंद शोरगुल में वह जो धीमी-'सी आवाज है, जो कान से नहीं पहुंचती हृदय से पहुंचती है, वह पकड़ी जा सकती है।
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वह पहुंचती आप तक भी है, लेकिन आप इतनी भीड़ में भीतर घिरे हैं, ऐसा बाजार भीतर है कि वह आपको सुनायी नहीं पड़ती। वह कोई विशेषता नहीं है। आप बड़े विशेष हैं, यही मुश्किल है ! आपके भीतर भीड़ है, बाजार है भारी, उस बाजार की वजह से वह आवाज सुनायी नहीं पड़ती। अन्यथा वह आवाज प्रतिपल चल रही है। और कभी-कभी हमको भी सुनायी पड़ती है, लेकिन हमको भरोसा नहीं आता। क्योंकि हमको कोई अनुभव नहीं है।
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अचानक आप एक दिन देखते हैं कि आपको मित्र का खयाल आया और उसने द्वार पर दस्तक दी। तब आप सोचते हैं, संयोग होगा। क्योंकि आपको उसका पता नहीं है भीतर। एक दिन अचानक आपको लगता है कि आप बिलकुल प्रसन्न थे और एकदम उदास हो गये, आपको कुछ समझ में नहीं आता, पीछे तार आता है कि कोई मित्र चल बसा, कि कोई प्रियजन बीमार है; तब आप सोचते हैं--संयोग होगा।
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संयोग जरा भी नहीं है। जब भी आपका प्रियजन मरता है तब आपके भीतर बिना इंद्रियों के खटका पहुंचता है। पहुंचेगा ही। क्योंकि मरना कोई छोटी घटना नहीं है, बड़ी घटना है। और जिससे आप जुड़े हैं, उससे एक भीतरी संबंध है, एक भीतरी द्वार है, जहां से खबरें आ--जा सकती हैं। लेकिन हम संयोग मानकर छोड़ देते है कि हो गया ऐसा। क्योंकि हमें पता नहीं है। अगर हमें पता हो तो हर आदमी अपनी जिंदगी में अनेक ऐसी घटनाएं पाएगा, जो उसे खबर देंगी कि उसके भीतर जो छिपा है वह इंद्रियों के बिना भी काम कर सकता है।
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और अगर आपको खयाल हो और सचेतन प्रयोग आप करते हों, तो आप वर्ष दो वर्ष में दूसरे ही आदमी हो जाएंगे। आपको चीजें दिखायी पड़ने लगेंगी जो आंख से दिखायी नहीं पड़ती। और वे चीजें सुनायी पड़ने लगेंगी जो कान से सुनायी नहीं पड़ती। और वे आपके अनुभव बन जाएंगे जिनको बाहर से अनुभव करने का कोई उपाय नहीं है।
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तब एक भीतरी संपदा का जगत शुरू होगा। तब एक भीतरी अनुभव का अलग ही लोक खुलता है। तब फूल खिलते हैं जो हमें बिलकुल अपरिचित हैं। और संगीत बजता है जिसका कानों से कोई संबंध ही नहीं है। और ऐसे नाद और ऐसे प्रकाश और ऐसे रंग और ऐसे अनुभव में हम उतरते चले जाते हैं जिनका इन इंद्रियों ने कभी भी कोई संस्पर्श भी नहीं किया है।
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लेकिन, जीवन में संयोग शब्द को थोड़ा कम करें। और बन सके तो जीवन से संयोग शब्द को बिलकुल काट दें। और जब भी कोई ऐसी घटना घटती हो जो इंद्रियों के पार की खबर देती हो, तो उसको तथ्य मानकर उस दिशा में काम शुरू कर दें। संयोग मानना एक तरह का बचाव है। एक तथ्य को झुठलाने का, एक तथ्य को भुला डालने का, एक तथ्य को किसी तरह समझा लेने का उपाय है।
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एक तथ्य जो विचित्रता की तरह पैदा होता है, उसको हम सामान्य कर देते हैं संयोग कहकर। इस जगत में संयोग कुछ भी नहीं है। 'कोइंसीडेंट', संयोग जैसी कोई भी बात नहीं है। इस जगत में जो भी है वह गहरे कार्य-कारण से अनुबद्ध है। गहरे कार्य-कारण में जुड़ा है। जो भी यहां घटित होता है, उस घटने के पीछे कारण है।
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संयोग कहकर हम उन कारणों की खोज नहीं कर पाते। अगर हम कारणों की खोज करें तो हमारी भीतरी शक्तियों का अनुभव हमें शुरू हो जाएगा। और जिस दिन हमें उस शक्ति का पता चलने लगे, आंख के बिना जहा दर्शन हो जाए और कान के बिना जहा सुनना हो जाए, उस दिन हमने संसार के बाहर कदम रख दिया। उस दिन हम ब्रह्म के मंदिर में प्रविष्ट हुए।
ओशो; कैवल्य उपनिषद--परवचन-15, 4 jul

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