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*दुख दरिया संसार है, सुख का सागर राम।*
*सुख सागर चलि जाइये, दादू तजि बेकाम ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*अशरण-सूत्र(महावीर वाणी)*
वित्तं पलवो न नाइओ, तं वाले सरणं ति मन्नई ।
एए मम तेसु वि अहं, नो ताणं सरणं न विज्जई ॥१॥
(१८५)मूर्ख मनुष्य धन, पशु और जातिवालो को अपना शरण मानता है और समझता है कि 'ये मेरे है' और 'मैं उनका हूँ' । परन्तु इनमें से कोई भी आपत्तिकाल में त्राण तथा शरण का देनेवाला नहीं ।
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जन्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्य कीसन्ति जन्तुणो ॥२॥
(१८६)जन्म का दुख है, जरा(बुढापा) का दुख है, रोग और मरण का दुख है । अहो ! संसार दुखरूप ही है ! यही कारण है कि यहाँ प्रत्येक प्राणी जब देखो तव क्लेश ही पाता रहता है ।
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इमं सरीरं श्रणिचं, अतुई असुइसंभवं ।
अमानयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायवणं ॥३॥
(१८७)यह शरीर अनित्य है, अशुचि है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, दुख और क्लेशों का धाम है । जीवात्मा का इसमें कुछ ही क्षणों के लिए निवास है, आखिर एक दिन तो अचानक छोड़कर चले ही जाना है ।
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दाराणि सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा ।
जीवन्तमणुजीवन्ति, मयं नाणुवयन्ति य ॥४॥
(१८६)स्त्री, पुत्र, मित्र और बन्धुजन सब कोई जीते जी के ही साथी हैं, मरने पर कोई भी पीछे नहीं आता ।

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