गुरुवार, 19 अक्टूबर 2023

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*दादू देखौं निज पीव को, और न देखौं कोइ ।*
*पूरा देखौं पीव को, बाहिर भीतर सोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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सुना है मैंने, एक आदमी था महाराष्ट्र में। घोर नास्तिक था। साधु-संतों के पास जाता, तो साधु-संत बड़ी मुश्किल में पड़ जाते। क्योंकि यह दुर्भाग्य की घटना है कि नास्तिक भी हमारे तथाकथित साधु-संतों से ज्यादा समझदार होते हैं। साधु-संत मुश्किल में पड़ जाते। उस नास्तिक को जवाब देते उनसे न बन पड़ता। वह जो भी पूछता, उन साधु-संतों को बेचैन कर जाता। 
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साधु-संत होना चाहिए ऐसा कि जिसे कोई बेचैन न कर जाए; बल्कि बेचैनी से भरा कोई पास आए, तो चैन लेकर जा सके। लेकिन वह नास्तिक बहुत-से साधु-संतों के लिए तकलीफ और परेशानी का कारण बन गया था। बड़े-बड़े साधुओं के पास जाकर भी उसने पाया कि उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं है।
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तब एक साधु ने उससे कहा कि तू इधर-उधर मत भटक। तेरे लायक सिर्फ एक ही आदमी है, एकनाथ नाम का। तू उसके पास चला जा। अगर उससे उत्तर मिल जाए, तो ठीक। नहीं तो फिर परमात्मा से ही उत्तर लेना। फिर बीच में दूसरा आदमी काम नहीं पड़ेगा। उस आदमी ने कहा, लेकिन परमात्मा तो है ही नहीं! तो उस साधु ने कहा, फिर एकनाथ आखिरी आदमी है। उत्तर मिल जाए, ठीक; न मिले, तो तू जान।
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बहुत आशा से भरा हुआ वह नास्तिक एकनाथ के पास पहुंचा। सुबह थी। कोई सुबह के आठ, साढ़े आठ, नौ बज रहे थे। धूप घनी थी, सूरज ऊपर निकल आया था। गांव में पूछता हुआ गया, तो लोगों ने कहा कि एकनाथ के बाबत पूछते हो ! नदी के किनारे मंदिरों में देखना, अभी कहीं सोता होगा ! उसके मन में थोड़ी-सी चिंता हुई। साधु तो ब्रह्ममुहूर्त में उठ आते हैं। नौ बज रहे हैं; कहीं सोता होगा !
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गया जब मंदिर में, तो देखकर और मुश्किल में पड़ गया। क्योंकि एकनाथ शंकर के मंदिर में सोए हैं, पैर दोनों शंकर की पिंडी से टिके हैं; आराम कर रहे हैं ! सोचा कि नास्तिक हूं मैं, अगर इतना महानास्तिक मैं भी नहीं हूं। शंकर को पैर लगाते मेरी भी छाती कंप जाएगी। कहीं हो ही अगर ! कहता हूं कि नहीं है। लेकिन पक्का भरोसा नहीं है नहीं होने का। कहीं हो ही अगर ? और पैर लग जाए, तो कोई झंझट खड़ी हो जाए। 
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किसके पास मुझे भेज दिया ! लेकिन जब अब आ ही गया हूं, तो इससे दो बात कर ही लेनी चाहिए। वैसे बेकार है। यह मुझसे भी गया-बीता मालूम पड़ता है ! और जो आदमी शंकर की पिंडी पर पैर रखकर सो रहा है, उसको उठाने की हिम्मत न हो सकी। पता नहीं नाराज हो, क्या करे ! ऐसे आदमी का भरोसा नहीं। बैठकर प्रतीक्षा की। कोई दस बजे एकनाथ उठे।
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उस आदमी ने कहा कि महाराज, आया था पूछने कुछ ज्ञान; अब तो कोई जरूरत न रही पूछने की। क्योंकि आप मुझसे भी आगे गए हुए मालूम पड़ते हैं ! पूछने कुछ और आया था, अभी पहले तो मैं यह पूछना चाहता हूं, यह कोई उठने का समय है ? साधु-संत ब्रह्ममुहूर्त में उठते हैं !
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एकनाथ ने कहा कि ब्रह्ममुहूर्त ही है। असल में जब साधु-संत उठते हैं, तभी ब्रह्ममुहूर्त ! न हम अपनी तरफ से सोते हैं, न अपनी तरफ से उठते हैं। जब वह सो जाता है, सो जाता है; जब वह उठता है, तब उठ जाता है। तो हमने तो एक ही जाना कि जब नींद खुल गई ब्रह्म की, तो ब्रह्ममुहूर्त है ! हम अपनी तरफ से सोते भी नहीं, अपनी तरफ से जागते भी नहीं। ब्रह्म को जब सोना है, सो जाता है; ब्रह्म को जब जगना है, जग जाता है। यह ब्रह्ममुहूर्त है, क्योंकि ब्रह्म उठ रहे हैं !
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उसने कहा, गजब की बात कह रहे हैं आप भी। और मुश्किल में डाल दिया। हम तो पूछने आए थे, ब्रह्म है या नहीं ? अब हम और मुश्किल में पड़ गए! क्योंकि आप तो कह रहे हैं, आप ही ब्रह्म हैं ! एकनाथ ने कहा कि यह ही नहीं कह रहा हूं कि मैं ही ब्रह्म हूं, यह भी कह रहा हूं कि तू भी ब्रह्म है। फर्क इतना ही है कि तुझे अपने होने का पता नहीं, मुझे अपने होने का पता है।
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उसने कहा, छोड़िए इस बात को। यह भी आपसे पूछ लूं कृपा करके कि शंकर की पिंडी पर पैर रखकर सोना कौन-सा तुक है! एकनाथ कहने लगे, मैंने सब जगह पैर रखकर देखा, शंकर को ही पाया। कहीं भी पैर रखूं, फर्क क्या पड़ता है ! जहां भी पैर रखूं, वही है। शंकर की पिंडी पर रखूं, तो वही है, अगर ऐसा होता, तो एक बात थी। जहां भी पैर रखूं, वही है। तो फिर मैंने फिक्र छोड़ दी।
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उस आदमी ने कहा, तो मैं जाऊं ! क्योंकि अभी हम भी इस हालत पर नहीं पहुंचे कि शंकर की पिंडी पर पैर रख सकें ! हम तो कुछ ज्ञान लेने आए थे। आस्तिक होने आए थे। आप महानास्तिक मालूम पड़ते हो। एकनाथ ने कहा, अब इतनी धूप चढ़ गई, जाओगे कहां। भोजन बनाता हूं, भोजन कर लो, फिर जाना।
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और एकनाथ गांव में जाकर आटा मांग लाए। फिर उन्होंने बाटियां बनाईं। और जब वे बाटियां बनाकर रख रहे थे, तो एक कुत्ता आकर एक बाटी लेकर भाग गया। तो एकनाथ हंडी लेकर घी की उसके पीछे भागे। उस आदमी ने समझा कि यह दुष्ट, कुत्ते से भी बाटी छुड़ाकर लाएगा। अजीब संन्यासी मिल गया ! ले गया कुत्ता एक बाटी, तो ले जाने दो।
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यह भी उसके पीछे दौड़ा कि देखें, यह करता क्या है ? एक मील दौड़ते-दौड़ते एकनाथ बामुश्किल उस कुत्ते को पकड़ पाए और पकड़कर कहा कि राम, हजार दफे समझाया कि बिना घी की बाटी हमको पसंद नहीं है खानी; तुमको भी नहीं होगी। नाहक एक मील दौड़वाते हो। हम घी लगाकर थोड़ी देर में रखते; फिर उठाकर ले जा सकते थे ! 
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छुड़ाकर बाटी, घी की हंडी में डालकर–कुत्ते के मुंह की जूठी बाटी वापस डालकर–घी में पूरा सराबोर करके मुंह में लगा दी और कहा कि आइंदा खयाल रखना, नहीं तो हड्डी-पसली तोड़ देंगे। न इस राम को पसंद है, न उस राम को पसंद है ! जब हम बाटी में घी लगा लें, तभी ले जाया करें। नाहक एक मील दौड़वाया !
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उस आदमी ने सोचा कि बड़े मजे का आदमी है! शंकर की पिंडी पर पैर रखकर सोता है, कुत्ते को राम कहता है ! अगर ठीक से समझें, तो यह भजन चल रहा है। ये दोनों ही भजन के रूप हैं। अगर प्रभु सब जगह है, ऐसा स्मरण आ जाए, तो शंकर की पिंडी को अलग कैसे करिएगा ! और अगर सब जगह प्रभु है, तो कुत्ते को बिना घी की बाटी कैसे खाने दीजिएगा !
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ये दोनों विरोधी बातें नहीं हैं, ये एक ही प्रभु के भजन में लीन चित्त के दो रूप हैं। और संगतिपूर्ण हैं; इनमें कोई विरोध नहीं है। असल में जो शंकर की पिंडी पर पैर रख सकता है, वही कुत्ते को राम कह सकता है। और जो कुत्ते को राम कह सकता है, वही शंकर की पिंडी पर पैर रख सकता है। 
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यह शंकर की पिंडी पर पैर रखने का साहस, सामर्थ्य, उसी का है, जो कुत्ते के सामने सिर झुका सके। और कुत्ते के सामने सिर झुकाने की, समर्पण की स्थिति उसी में हो सकती है, जो शंकर की पिंडी पर पैर रख सके।
ओशो; गीता-दर्शन-प्रवचन-061

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