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*पीवत चेतन जब लगै, तब लग लेवै आइ ।*
*जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे को जाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*गौणी भक्ति में लगो, पराभक्ति की प्रतीक्षा करो*
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#शांडिल्य भक्ति के दो अंगों को दो नाम देते हैं : एक को गौणी-भक्ति, एक को पराभक्ति।
गौणी-भक्ति नाममात्र को ही भक्ति है। अभी भगवान ही नहीं मिला तो भक्ति क्या ? मगर जरूरी अंग है। गौणी-भक्ति में उपचार है, विधि-विधान है, पूजा-प्रार्थना, आराधना है। गौणी-भक्ति में द्वैत है। भक्त और भगवान दूर हैं, बीच में बड़ा फासला है। अभी सेतु भी नहीं बना। लेकिन भक्त ने इस किनारे से उस किनारे को पुकारना शुरू किया है।
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पहली को शांडिल्य ने कहा गौणी-भक्ति। लेकिन गौणी से तुम यह अर्थ मत लेना कि उसका कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि उसके बिना पराभक्ति होगी ही नहीं। गौणी इसीलिए कहा है कि यह अंत नहीं है, यात्रा का प्रारंभ है। अनिवार्य प्रारंभ है। इससे बचा नहीं जा सकता है। 'और यह गौणी-भक्ति पराभक्ति की भित्तिरूप है' और जिसने गौणी को न साधा, वह पराभक्ति को न साध सकेगा। यह बुनियाद है, भित्ति है। इसी बुनियाद पर यह मंदिर उठेगा।
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पराभक्ति का अर्थ होता है। वहां भजन भी खो जाएगा; वहां वार्ता बंद हो जाएगी; वहां सन्नाटा हो जाएगा। वहां अंतत: भक्त भी खो जाएगा, भगवान भी खो जाएगा; वहां द्वैत खो जाएगा, वहां एक ही बचेगा। इतना एक कि उसको एक भी न कह सकेंगे हम। क्योंकि एक कहो तो दो का भाव पैदा होता है। वहां जो बचेगा उसको शब्द न दिया जा सकेगा।
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अनिर्वचनीय होगा वह। अव्याख्य होगा। उसकी कोई शब्द में परिभाषा नहीं होगी। न तो वहां बचेगा जाननेवाला और न जाना जानेवाला। एक शून्य विराजमान होगा, और उस शून्य में पूर्ण का नृत्य होगा।
वह अलौकिक है। उसकी अलौकिकता की घोषणा के लिए उसको 'परा' कहा है। वह पार और पार ! वह हमारे सारे अनुभवों का अतिक्रमण कर जाता है। हमारा कोई अनुभव उसके संबंध में सूचना नहीं दे सकता है।
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हमने अब तक जो जाना है, जो अनुभव किया है, वह सब उसके सामने व्यर्थ हो जाता है। हमारी भाषा पंगु होकर गिर जाती है। हमारी बुद्धि अवाक होकर ठिठक जाती है। हमारा हृदय नहीं धड़कता। वहां अपूर्व सन्नाटा है। उस पराभक्ति को पाने के लिए गौणी-भक्ति केवल भित्तिरूप है। गौणी-भक्ति पर रुक मत जाना। गौणी-भक्ति से गुजरना जरूर है, मगर गुजर जाना है।
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अब दो तरह के लोग हैं। अधिक लोग गौणी-भक्ति में उलझे रह गये हैं। वे भजन-कीर्तन ही करते रहते हैं। वे पराभक्ति की बात ही भूल गये हैं। उन्होंने मंदिर की बुनियाद तो भर ली है, लेकिन बुनियाद भरने में ही इतने मस्त हो गये हैं कि उन्होंने मंदिर उठाना है, मंदिर उठाया जाना है, इसकी बात ही विस्मृत कर दी है। बस अपनी बुनियाद भरे बैठे हैं ! उसी बुनियाद की पूजा कर रहे हैं ! मंदिरों की मूर्तियों में जो पूजा में लगे हैं, वे बुनियाद में ही उलझे हैं। एक तो इस तरह के लोग हैं, जो गौणी-भक्ति में उलझ कर रह गये। गौणी-भक्ति उनके लिए पराभक्ति का आधार नहीं बनी, पराभक्ति के लिए अवरोध बन गयी।
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और दूसरे कुछ ऐसे लोग हैं, जो जरा सोच-विचारवाले हैं, जिनमें बुद्धि की थोड़ी प्रखरता है, वे कहते हैं, गौणी में हम जाएं क्यों ? हम सीधे परा में जा रहे हैं। वे वेदांत की बड़ी ऊंची चर्चा करते हैं, अद्वैत की बातें करते हैं, लेकिन उनकी बातें फिजूल हैं। वे मंदिर उठाने की बातें करते हैं, मंदिर के शिखर की बातें करते हैं, स्वर्ण-शिखरों की चर्चा करते हैं, लेकिन बुनियाद नहीं रखी गयी है। तुम दोनों का ध्यान रखना। दोनों को साधने से बात सधेगी। और मजा ऐसा है कि दोनों ही आधे-आधे सही हैं।
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कोई-कोई आचार्य गौणी-भक्ति की प्रधानता के कारण अधिक फल मानते है।' गौणी-भक्ति का इतना मूल्य है कि कुछ आचार्यों ने ऐसा भी मान लिया है कि गौणी-भक्ति पराभक्ति से भी ज्यादा मूल्यवान है। उनकी बात में भी थोड़ी सचाई है, क्योंकि बिना गौणी-भक्ति के पराभक्ति तो होगी नहीं। बिना बुनियाद के मंदिर तो उठेगा नहीं...
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शांडिल्य कहते हैं: कुछ आचार्य कहते हैं कि गौणी-भक्ति प्रधान है, उसको गौण कहना ठीक नहीं, क्योंकि उसके बिना परभक्ति कभी होगी ही नहीं। ठीक ही कहते हैं। मगर दूसरे हैं जो कहते हैं, पराभक्ति परा है, गौणी तो गौण हैं। वे भी ठीक कहती हैं, क्योंकि पराभक्ति के लिए ही तो गौणी-भक्ति की जाती है, वह साधन रूप है। हम राह चलते हैं--मंजिल पर पहुंचने के लिए। मंजिल का मूल्य है। राह चलने के लिए तो कोई राह नहीं चलता, मंजिल पर पहुंचने के लिए चलता है। इसलिए असली मूल्य तो मंजिल का है।
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लेकिन कोई यह भी कह सकता है, बिना राह चले मंजिल पहुंचोगे ? कैसे पहुंचोगे ? और जब मंजिल मिल नहीं सकती बिना राह के, तो राह मंजिल से भी ज्यादा मूल्यवान है। ये दोनों ही बातें ठीक हैं। इनमें विवाद व्यर्थ है।..... गौणी-भक्ति प्रयास है। फिर भी भक्त का भाव सदा इसका ही होता है कि तेरी अनुकंपा के कारण तू मिला है, मेरे प्रयास के कारण नहीं। तेरा प्रसाद है। तेरी करुणा है।........
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तुम अपना पूरा प्रयास करो। तुम्हारा प्रयास जब पूर्णता पर पहुंच जाएगा तभी प्रसाद की किरण उतरती है। और जैसे ही प्रसाद की किरणें उतरीं, गौणी-भक्ति विदा हो गयी। फिर पराभक्ति का प्रारंभ है। वहां भक्त और भगवान एक हैं। वहां एक ही ऊर्जा का नृत्य है। फिर वहां कोई भेद नहीं, कोई द्वैत नहीं। जहां तक भेद है, जहां तक द्वैत है, वहां तक द्वंद्व भी रहेगा, दुख भी रहेगा। दुख की समाप्ति है द्वैत की समाप्ति पर। उस लक्ष्य पर ध्यान रखना कि एक दिन भगवान में लीन हो जाना है, भगवान को अपने में लीन हो जाने देना है। एक दिन सब सीमाएं मिटा देनी हैं।
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ओशो; अथातो भक्ति जिज्ञासा

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