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*दादू आप छिपाइए, जहांँ न देखै कोइ।*
*पिव को देख दिखाइए, त्यों-त्यों आनंद होइ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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और जैसे-जैसे तुम इसको छिपाने लगोगे, जहां कोई न देखे, जिस- जिस मात्रा में यह छिपने लगेगा, खोने लगेगा, मिटने लगेगा, इसके गवाह न रह जाएंगे, वैसे-वैसे प्यारा प्रकट होने लगेगा। पिव को देखिये... फिर देखिए मजे से और दूसरों को भी दिखाइए मजे से। और-- ....त्यों-त्यों आनंद होई। और फिर आनंद बढ़ता जाता है।
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इसको हम ऐसा समझें: जिस मात्रा में तुम्हारा अहंकार, उस मात्रा में नरक, उस मात्रा में दुख। अगर तुम बहुत दुखी हो, तो ठीक से समझ लेना कि बहुत अहंकारी हो। क्योंकि और दूसरा कोई अर्थ नहीं होता। जिस-जिस मात्रा में तुम आनंदित, उतने तुम निरहंकारी। आनंद को सीधा घटाने-बढ़ाने का कोई उपाय नहीं। अहंकार की मात्रा घटाओ-बढ़ाओ।
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जिस मात्रा में अहंकार घटता है, आनंद बढ़ता है। क्योंकि वही ऊर्जा जो अहंकार में उलझी थी, मुक्त हो जाती है। जिस मात्रा में अहंकार बढ़ता है, उसी मात्रा में आनंद घटता है। क्योंकि वही ऊर्जा जो आनंद देती है, अहंकार में बंद होती चली जाती है। ये एक ही ऊर्जा के खेल हैं। इसलिए हमने ब्रह्म की परिभाषा में आनंद को रखा है--सच्चिदानंद।
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आखिरी बात आनंद है ब्रह्म के जगत में। इसलिए आनंद को आखिर में कहा है-- सत, चित, आनंद। उसके पार फिर कुछ भी नहीं। और बड़े से बड़ा पाप है अहंकार; बड़े से बड़ा दुख और नर्क। वहां कोई आनंद का फूल खिलता ही नहीं। दुख के ही कांटे लगते हैं। मरुस्थल ! जहां कोई छोटा मरूद्यान भी नहीं मिलता, जहां थोड़ी देर विश्राम कर लें।
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धूपत्ताप, आपाधापी, कष्ट, पीड़ा ! सारे जीवन का सार ना-कुछ। राख हाथ में रह जाती है। दादू कहते हैं: जहां न देखै कोई, दादू आप छिपाइए। हम उलटा काम करते हैं, इसलिए दुखी हैं। हम इस दादू के सूत्र से ठीक उलटा चलते हैं। हमारी पूरी आकांक्षा एक ही होती है जीवन में कि सारे लोग हमें देख लें। आपे का पता चल जाए दुनिया भर को।
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हम इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि अहंकार के पास बड़ा पद हो, तो ऊंचे चढ़ कर खड़े हो जाएं। लाख देखते थे, दस लाख देख लें। और बड़ा पद हो, करोड़ देख लें, दस करोड़ देख लें। बहुत धन हो, तो लोग देख लें। नाम हो, प्रतिष्ठा हो, चरित्र हो, त्याग हो, लोग देख लें। लेकिन सबके पीछे एक ही खयाल रहता है कि यह जो अहंकार है, यह सबकी स्वीकृति बन जाए, सारा संसार इसके लिए गवाह हो जाए।
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फिर हम नरक में पड़ते हैं, फिर हम रोते हैं। क्योंकि यही तो नरक को पैदा करने की व्यवस्था है। दादू आप छिपाइए, जहां न देखै कोई। पिव को देखि दिखाइए, त्यों-त्यों आनंद होई॥और जैसे ही तुम इसे छिपाने में समर्थ हो जाओगे--छिपाने का अर्थ है मिटाने में; क्योंकि और तो छिपाना हो ही नहीं सकता--तुम्हारी भी वही दशा होगी जो दूसरे युवक की हुई।
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आखिर में तुम दादू के पास आकर कहोगे, खूब खेल किया ! छिपाने से तो कुछ होता नहीं, मिटाना पड़ेगा। क्योंकि मैं भी देखता रहूं, एक भी इसका गवाह हो, तो भी यह टिमटिमाता रहता है, मिटता नहीं। जहां इसके गवाह खो जाते हैं, वहीं इसकी ज्योति चुक गई। वहीं इसके तेल का अंत आ गया।
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इसीलिए तो तुम अहंकार के दीये में तेल भरने की जो कोशिश करते हो, वह एक ही है--ज्यादा लोग जान लें, तुम कौन हो--कितने महान हो, कितने ज्ञानी, कितने गुणवान हो, कितने चरित्रवान, कितने त्यागी हो, कितने धार्मिक हो। मंदिर में भी आदमी प्रार्थना करता है, अगर कोई न हो तो धीरे-धीरे करता है, जल्दी करके चला आता है।
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अगर भीड़-भाड़ हो, लोग देख रहे हों, तो बड़ी देर तक भक्तिभाव करता है, जोर-जोर से करता है। क्योंकि भगवान से थोड़े ही कोई लेना-देना है ! यह तो प्रार्थना, समाज में सम्मान पाने की एक विधि है। और सम्मान एक ऐसी खतरनाक बात है कि तुम कुछ भी करने को राजी हो जाते हो।
ओशो
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