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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३७९)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३७९. क्रीडाताल चण्डनी*
*का जानों राम ! को गति मेरी ? मैं विषयी मनसा नहीं फेरी ॥टेक॥*
*जे मन मांगै सोई दीन्हा, जाता देख फेरि नहिं लीन्हा ॥१॥*
*देवा द्वन्द्वर अधिक पसारे, पाँचों पकर पटक नहिं मारे ॥२॥*
*इन बातन घट भरे विकारा, तृष्णा तेज मोह नहिं हारा ॥३॥*
*इनहिं लाग मैं सेव न जानी, कहै दादू सुन कर्म कहानी ॥४॥*
हे राम ! मेरी क्या गति होगी यह मैं नहीं जानता हूँ । क्योंकि विषयों में आसक्त होने के कारण मन से कभी भी आपका भजन नहीं कर सका । मैंने सब कार्य मन के अनुकूल ही किये । कभी मन को विषयों से रोकने का उपाय भी नहीं किया । इन्द्रियों के अधीन होकर काम क्रोध आदि विकारों में ही मैंने अपना जीवन खो दिया ।
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पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को उन उनके विषयों को देकर उनका लालन किया कभी विषयों से हटाने की चेष्टा भी नहीं की । विषयों से वैराग्य न होने के कारण आपकी भक्ति भी नहीं कर सकता । अब भी मेरा मन विषय विकारों से भरा रहता हैं । तृष्णा तो कभी शान्त होती ही नहीं ।
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मोह भी मेरा नष्ट नहीं हुआ । इन्हीं कारणों से मैं आपकी भक्ति नहीं कर सका । यह ही मेरे कर्मों की कहानी हैं । अब मैं सोचता हूँ कि आपकी कृपा हो जाय तो मेरी सद्गति हो जाय । अन्यथा नहीं ।
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क्योंकि आपकी कृपा के विषय में वैंकटनाथ ने दयाष्तक में लिखा है कि –
निषादराजगुह, सुग्रवी, शबरी, सुदामा, कुब्जा, ब्रज रमणियें तथा माली के निम्नत्व और वैंकटनाथ भगवान् की श्रेष्ठता इन दोनों के संयोग में आपकी अनुकम्पा ही हैं । अर्थात् इनके निम्न होने पर भी उन सब पर आपकी दया हुई । अतः मेरे पर भी आपकी दया होनी चाहिये । भले ही मैं कितना ही निम्न क्यों न हूँ । वाल्मीक रामायण में सीताजी ने हनुमानजी को अपने सन्देश में दया को ही सबसे बड़ा धर्म बतलाया है ।
(क्रमशः)
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